पितु संग बचपन
पितु संग बचपन
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अमीरी अभिशाप बने ना, वात्सल्य प्रेम और बचपन का,
धन-दौलत दुश्मन न बन जाए,बालपन और पितृधन का।
पितु संग बीते जो बचपन,तो होता परिवर्धन संस्कारों का ,
संग पिता बिन रहे जो बालक,अक्सर दूषित विचारों का।
धन-दौलत के बल पर कभी,आता नहीं बचपन का सावन,
खिलता जो बचपन गांवों में,अब शहर नहीं वो मनभावन।
निर्धन पिता आज भी खुश हैं,संतति के पावन संस्कारों से,
धनी तात क्यों भयभीत हो रहा,होते खुद के तिरस्कारों से।
यदि वयस बालकपन का हो,तो मत छोड़ो उसे औरों पर,
संस्कार ही ज्ञान की कुंजी, तौलो इसको निज आदर्शों पर।
प्रथम गुरु तो माता-पिता हैं,बालक से छिनो न ये अवसर,
पितृस्नेह सा कोई धन नहीं जग में,भारी हर धन-दौलत पर।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )