पहचान…
पहचान
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मानव तन अपनी आत्मा से प्रश्न करता है _
आते हैं सब मुसाफिर बनकर ,
सफर कब तक अविराम चलेगी..?
नजर मुझे,कब आएगी मंजिल ,
यात्री को कब पहचान मिलेगी..?
आत्मा फिर इस तन से कहता है _
मेरी यह पहचान समझ लो ।
अमर हूं मैं, मिटता ही नहीं हूँ ,
दिखता हूँ सफर में तेरे जो ,
किन्तु सफर,मैं करता ही नहीं हूँ ।
ये तो तेरे कर्मो का फल है ,
जो मैं तेरे संग चला हूँ ।
मेरी तो पहचान यही है ,
मैं तो बस एक शून्य सखा हूँ ।
उतरा था नभ से जो धरा पर ,
तेरे कर्मो का हिसाब चुकाने ।
दिखता तुझको ये जन्म बस ही है ,
मुझको तो दिखता अतीत है ।
शोर-शराबे धन दौलत से ,
पहचान मेरी धुमिल ही होती ।
गहने,जेबर,कार और बंगले ,
मेरे मन को जंजीर सी लगती ।
इस युग की नई दास्ताँ तो देखो_
भूख,गरीबों की पहचान बनी है ,
अमीरी झूठी शान में फंसी है ।
धर्म आतंकित हुआ है जग में ,
जाति से नई पहचान सजी है ।
रिशतें-नाते झुठे लगते हैं ,
साहिल पे ईमान खड़ा है ।
कर्म करो तुम ऐसा जग में ,
मिल जाऊँ मैं, वापस ब्रह्म में ।
मेरी जब पहचान मिटेगी ,
फिर तेरी पहचान बनेगी ।
भूल-भूलैया सी जीवन में ,
जग को तेरी याद रहेगी ।
तुम ब्रह्ममय निर्विकार रहोगे ,
हर दिल को फिर,तुम याद रहोगे ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २९ /१२ / २०२१
कृष्ण पक्ष , दशमी , बुधवार
विक्रम संवत २०७८
मोबाइल न. – 8757227201