*पत्रिका समीक्षा*
पत्रिका समीक्षा
पत्रिका का नाम: नए क्षितिज त्रैमासिक वर्ष 9 अंक 32 जनवरी-मार्च वर्ष 2023
प्रधान संपादक: डॉ सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’
संपादकीय पता: बाबू कुटीर, ब्रह्मपुरी, पंडारा रोड, बिसौली 243720 बदायूं उत्तर प्रदेश मोबाइल 83940 34005
सजल विशेषांक की अतिथि संपादक : श्रीमती रेखा लोढ़ा स्मित
मोबाइल 98296 10939
मूल्य : एक प्रति ₹80
समीक्षक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451
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यह नए क्षितिज का सजल विशेषांक है।
हिंदी में गजल को उर्दू से अलग हटकर अपनी एक अलग पहचान के रूप में स्थापित करने के प्रयासों के फलस्वरूप सजल अस्तित्व में आया। 5 सितंबर 2016 को सजल की शुरुआत हुई। डॉक्टर अनिल गहलोत इसके संस्थापक रहे। इसके अतिरिक्त रेखा लोढ़ा स्मित, इंजीनियर संतोष कुमार सिंह, डॉक्टर रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ आदि सजल विधा के प्रवर्तन में शामिल रहे। विशेषांक में डॉ अनिल गहलोत ने गजल के नाम पर हिंदी में उर्दू के प्रयोग पर प्रश्न चिन्ह लगाया है । उनका कहना है :- “गजल लिख रहे हैं तो अधिक से अधिक उर्दू के शब्द लिए जाऍं तभी तो हमारी गजल अच्छी मानी जाएगी, इस मानसिकता के कारण जिसको हिंदी वाले कहने को तो अपनी गजलों को हिंदी गजल कहते रहे किंतु उन गजलों में प्रयुक्त भाषा को उर्दू के अधिकाधिक शब्द प्रयोग से और उर्दू व्याकरण से दिनों दिन विकृत करते रहे। हिंदी में मुक्तहस्त नुक्ता का प्रयोग होने लगा।”
डॉ अनिल गहलोत ने अपने लेख में स्पष्ट रूप से यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि “हिंदी में लिखी जाने वाली गजल को केवल लिपि के आधार पर ही उसको हिंदी गजल नाम दे दिया गया था। भाषा और शिल्प वही उर्दू गजल का ही रहा। यह तो केवल नाम हिंदी गजल है।”
डॉक्टर संतोष कुमार सिंह सजल ने अपने लेख में गजल के प्रति हिंदी कवियों के प्रेम को इन शब्दों में व्यक्त किया है :-“हिंदी से अगाध प्रेम करने वाले कुछ साहित्यकार गजल जैसी हिंदी की किसी विधा में अपनी लेखनी चलाना चाहते थे किंतु उनका हिंदी से अगाध प्रेम उन्हें रोक रहा था । साथ ही साथ हिंदी में उर्दू के शब्दों का धड़ल्ले से होता हुआ प्रयोग उनको पीड़ा पहुंचा रहा था।”
डॉक्टर संतोष कुमार सिंह ‘सजल’ ने हिंदी में गजल लिखने वालों की पीड़ा को इन शब्दों में भी अभिव्यक्ति दी है :-“गजल मंचों के द्वारा खारिज किए जाने की पीड़ा लिए हिंदी गजलकारों ने गजल का नाम बदलकर नवीन विधा को स्थापित करने का प्रयास किया लेकिन यह नाम व्यर्थ ही रहे। वह केवल हिंदी गजल के नाम से चलती रही और हिंदी को निरंतर दूषित करती रही।”
यशपाल शर्मा यशस्वी ने “हिंदी लेखक क्यों लिख रहे हैं सजल” शीर्षक से लिखा है:- “सैकड़ों गजल संग्रह देवनागरी लिपि में लिखे तो गए थे लेकिन शब्द एवं व्याकरण के स्तर पर वे अधिकांशतः उर्दू के ही अधिक निकट हैं। हिंदी गजल के लेखन में श्रेष्ठता का पैमाना अधिकाधिक उर्दू शब्दों के प्रयोग तथा नुक्ता लगे हुए वर्णों का मुक्तहस्त प्रयोग ही मान लिया गया। इन स्थितियों से व्यथित होकर हिंदी के साहित्यकारों के एक समूह ने सजल विधा के प्रववर्तन का निश्चय किया।”
लेखक ने बताया है कि प्रचलन में आए हुए उर्दू शब्दों को “सजल में प्रयुक्त तो किया जाता है किंतु हिंदी के व्याकरण के अनुरूप ही।”
प्रधान संपादक डॉ सतीश चंद्र शर्मा ‘सुधांशु’ ने संपादकीय का शीर्षक सही अर्थों में सजल ही हिंदी गजल है लिखकर गजल और सजल के परस्पर संबंधों को एक प्रकार से निष्कर्ष पर पहुंचा दिया।
हिंदी में जो लोग गजल लिख रहे हैं तथा अपने लेखन को उर्दू के अनावश्यक प्रभाव से मुक्त रखना चाहते हैं, उन्हें निश्चित रूप से सजल की विचारधारा आकृष्ट करेगी। उर्दू के प्रचलित शब्दों को प्रयोग में लाते समय नुक्तो का प्रयोग न करना सजल का सही आग्रह है । अधिकाधिक हिंदी शब्दों का प्रयोग करते हुए हिंदी गजल को समृद्ध बनाया जाना चाहिए। इस दिशा में सजल विशेषांक कुछ अच्छा कार्य अवश्य ही कर रहा है।
विशेषांक में विजय बागरी विजय, डॉ. श्याम सनेही लाल शर्मा, ईश्वरी प्रसाद यादव, आशा गर्ग, डॉक्टर संतोष कुमार सिंह सजल आदि की सजल रचनाएं प्रकाशित की गई हैं। इनमें नुक्तों के प्रयोग से बचा गया है तथा अरबी-फारसी के स्थान पर हिंदी के शब्दों का प्रयोग विशेष रुप से देखा जा सकता है। वास्तव में यह हिंदी भाषा में लिखी गई गजलें ही हिंदी गजल हैं। अगर उर्दू के अनावश्यक शब्द प्रयोग तथा नुक्तों के प्रयोग की मानसिकता को ठुकराने का आग्रह ही सजल है, तो भला इसकी प्रशंसा कौन हिंदी कवि नहीं करेगा ?