पंख
अन्तर्मन के ज़ख्म
कुरेद कर बार बार
वक्त वक्त पर सहलाता है,
मजबूरी पर मेरी
हँस कर मरहम वो लगाता है,,
जैसे पत्थर दिल हैं हम इंसां नही
हालात पर कुछ हँसकर यूँ दिखाता है,
मर्यादा रिश्तों की रख ताक पर
अपनी मनमानी बस वो करता है,
बहरूपिया बनकर चतुराई से
दुनिया को चेहरा अलग दिखाता है,
खो गई उम्मीद सवालों में
किस्मत भी आजमाती रही हमें
अकेले ही सब कुछ सहना है,
जो न सोचा था कभी सपने में
वैसा रूप हमें दिखाता है
कमजोर हूँ मैं हर वक्त
ऐसा कुछ करके जताता है,
कैसे भर पायेगा जख्म?
धूप का मौसम ढलता नहीं,
एक एक जख्म को सिल कर
पंख उसे बनाना है,
संग हवा के आसमां में उड़ जाना है।
जलने वाले जलते रहेंगे,
हौसला कुछ यूँ दिखाना है।
पूनम कुमारी(आगाज ए दिल)