न बीत गई ना बात गई
गोधूलि की उस बेला से धूल में धूमिल रात गई ।
लहरों की लाई रेत रह गई,अहंकार की इमारत ढह गई।
मौन तो मनो बात कह गई
ना बीत गई ना बात गई।
गर्द रंजीत. खरपतवार सज्जित
कमल तो फिर भी खिल गया।
उसके शक्तिहीन हिम्मत की झूठी वह औकात गई ।
ना बीत गई ना बात गई।
हलाहल विष का प्याला भी शिव शंकर तो पी गया
बहु भक्षक परिवार, मनगढ़ंत चुनौतियों की ललकार, हारी हुई मानसिकता की पुकार ,
में इंसानियत की जात गई
दर्पण में फिर खुद को देखा
खींची लेख की नूतन रेखा
आलोकित उपलब्धियों से फ़िर गरजी
जो बीत गई सो बात गईI