निहारने आसमां को चले थे, पर पत्थरों से हम जा टकराये।
निहारने आसमां को चले थे, पर पत्थरों से हम जा टकराये,
लहू के कतरे तो तन से गिरे हैं, पर चोट मन की कोई देख ना पाए।
जो ख़्वाब आँखों में उतरे थे, अब संग आँसुओं के भी बह ना पाए,
धड़कनों पर जो शूल लगी है, हर पल अब वो चुभती जाए।
सुबह ने यूँ धोख़े दिए थे, की अँधेरे बन चुके मेरे हमसाये,
जब भी फूलों की महक उठे है, काँटों से मन ये छलनी हो जाए।
लक़ीरों की तन्हाई अपना चुके थे, क्यों घरौंदों की बातें कोई साथ ले आये,
जिन्हें क़दमों पर विश्वास नहीं है, वो कोरे शब्दों की ईमारत बनाये।
अतीत फिर से छूने लगी है, वहीँ तो खुशियों के दिन थे बिठाये,
इस आज में ऐसी आंच उठी है, की यादें तेरी फिर हमें रुलाये।
शब्दों के तो मेले लगे थे, पर अर्थ मौन का किसे समझाएं,
शाख से अब जो टूट चुके हैं, वो पत्ते छाया किसको दे पाए?