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23 May 2023 · 1 min read

निर्भय सोती रही जिंदगी (नवगीत)

नवगीत–19

निर्भय सोती
रही जिंदगी
मौत यहाँ सिरहाने बैठी ।

जागरूकता
खाली पन में
पीट रही है रोज ढ़िढोरा
आलस की
चादर में लिपटा
छिछलेपन ने खींस निपोरा
पुनः व्यस्तताएं
रचने को
आतुर हैं इक नई सभ्यता
लेकिन कुसमय
के सँग विपदा
गीत नये कुछ गाने बैठी ।

काँप रही है
नव पल्लव सी
महँगाई से क्षुब्ध गरीबी
और अमीरी
नाप रही है
लाचारी को लिए जरीबी ।
निष्क्रियता
भरसक दौड़ी है
मानव का अस्तित्व बचाने
नियति नियत
होकर नीयति पर
व्याधि छोड़ मुस्काने बैठी ।

दुबिधाओं में
अवसर पाकर
अफवाहों ने पंख पसारा
परिवर्तन की
उड़ी धज्जियां
स्थिरता का है अंधियारा
हालातों से
ठोकर खाकर
बदल गयी है जीवनशैली
शिक्षा की सब
नई नीतियां
जाकर के खलिहाने बैठी ।

– रकमिश सुल्तानपुरी

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