जल खारा सागर का
शीर्षक-जल खारा सागर का
एक दिन बैठी सागर तट पर
विस्तृत विशाल सागर के पास।
कुछ अनसुलझे प्रश्न लेकर
मन था मेरा अशांत उदास।
समेटकर स्वयं को हर दिशा से
टकटकी बांधे निहार रही थी।
किंचित शांत विकल सागर को
मन ही मन गुहार रही थी।
सागर-सागर सच बतलाना
तुम हो पिता तुल्य हमारे।
तृषा नहीं बुझाते तृषित की
हरपल रहते तुम खारे-खारे।
टूटते हैं जब-जब गहरे रिश्ते
सतत् अश्रुधारा बह जाती है।
भर जाता मन अंत:पीड़ा से
सब कुछ खारा कर जाती है।
रूठी नदियां सदियों मुझसे
मैं कैसे मीठा हो जाऊं।
अपने मन की व्यथा-कथा को
कहां और किस को दिखलाऊँ।
प्रतीक्षा में अपने प्रिय की
मैंने सब कुछ खो दिया।
रो-रो कर खारे आंसू से
जल को खारा कर दिया।
बिन अपनो के जीवन सूना
रिश्तों से जीवन की गरिमा।
जन्म लिया कलियुग में तुमने
ज्ञात नहीं रिश्तों की महिमा।
डॉ.निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया,असम