“धूमिल पहचान”
“धूमिल पहचान”
बहुत सौभाग्यशाली हूँ कि जन्मभूमि का दर्शन हुआ, रामायण का सम्पूर्ण पाठ, सत्यनारायण भगवान का कथा पूजन, हवन ब्राह्मण व वंधु वांधव का भोज व मेरे जुड़वा नातिन के मूल पूजनोपरांत आज कर्म भूमि का दर्शन होगा। बहुत कुछ संजोकर गया था जिसे लुटाकर वापस तो होना ही था। मित्र- परिवार और दायित्व का निर्वहन शायद व्यक्ति की मंशा पर आधारित है जो कब पुलक जाय कब विदक जाय कोई नहीं जानता। जायज और नाजायज कब किसके पक्ष में आकर हतप्रभ कर देगा यह समझ पाना किसी शालीन के बस की बात नहीं, हाँ एक बात जरूर है अनैतिक व्यक्ति कभी भी नैतिकता की राह नहीं चल सकता और नैतिकता की राह पर चलने वाला व्यक्ति कभी अपने पथ से बिमुख नहीं होता है। यदा-कदा यह द्वंद जब भी मिलते हैं तो वातारवरण तंग हो जाता है और रिश्तों की दरार चौड़ी हो जाती है कुछ ऐसा ही उपहार मुझे इस बार भी मिला जिसकी जरूरत शायद नहिंवत थी।
यह बात लिखने का कोई औचित्य नहीं हैं पर जाएं तो जाएं कहाँ, गाँव छोड़कर शहर गया हुआ व्यक्ति क्या उस रिश्ते के परिवेश से बाहर है जिस रिश्ते की बेहतरी के लिए ही तो उसने दूर दराज की गलियों की खाक छानते हुए अपना जीवन इस उम्मीद में गुजारता है कि जब भी अपनी गली में लौटेगा बहारें अपना दामन फैला देगी और उसकी थकान छूमंतर हो जाएगी, पर अब उस उम्मीद के विपरीत की हवा, आँखों को ऐसे भिगा रही है कि उसे पोछा भी नहीं जा सकता है। गाँव की वीरानगी और वहाँ से अपनों का पलायन का सबब यहीं है जिसकी दास्तान उन खंडहरों में छूपी है जो किसी न किसी की पहचान है किसी न किसी का पुस्तैनी हिस्सा है वह दिन दूर नहीं जब आज के चमकते और दहाड़ते मकान भी उसी खंडहरों की फहरिस्त में सम्मिलित होकर एक पहचान बन जाएंगे जिसके साथ होंगे जंगली घास और विषैले जानवर। ढाक के तीन पात, किसने देखा? पर होता जरूर है जिसको उसी रूप में देखना, समझना और सामंजस्य करना ही अपनत्व का दायित्व है, कुछ निभते हैं कुछ निभाते हैं कुछ बसीभूत हो जाते हैं यहाँ तक तो सही है पर जो इसे विकृत करते हैं उनका हस्र, उन्हीं को मुबारक। याद रखना होगा कि गाँव और शहर दोनों अपने पालनहार हैं किसी की उपेक्षा अपने आप की उपेक्षा है, और उपेक्षा कभी खुशी नहीं प्रदान करती। किसी ने लिखा है……
दगा किसी का सगा नहीं, न मानों तो कर देखों। जिस जिसने भी दगा किया जाओं उसका घर देखों।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी