द्वंद अनेकों पलते देखे (नवगीत)
नवगीत_22
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एक अँधेरा
सा छा जाता है
परिवर्तित व्यवहारों में ।
द्वंद्व अनेकों
पलते देखे,
संवेदनहीन विचारों में ।
स्वार्थ लिए
निजता बढ़ती है
लघुता विस्तृत हो जाती
सम्बन्धों की
डोर सुकोमल
टूट कहीं पर मुरझाती
अनबन चुप्पी
साधे बैठी
नित खुश रहते परिवारों में ।
आच्छादित
सच्चाई की
अनुभूति नही कर पाता है
अहसास प्रकृति के
मिट जाते
उर पत्थर बन जाता है
लोलुपता घुल
जाती है हठकर
मानव के संस्कारों में ।
मन के चौखट
पर विस्तारित
दुर्गुण पहरा देता है
निर्णय की
सामर्थ्य तिरोहित
कर दुख गहरा देता है
मनुज सदा
उलझा रहता है
निजहित के ही त्योहारों में ।
पशु से भी बदतर
वह मानव
जड़ चेतन का भान नही
भाव-विहीन
समाज-विनाशक
है जिसको अनुमान नही
क्या अच्छा है
और बुरा क्या ?
फ़र्क नही कुछ अधिकारों में ।
–रकमिश सुल्तानपुरी