द्रौपदी ही अब हरेगी द्रौपदी के उर की पीड़ा
रोज होते हैं स्वयंवर, रोज होती द्यूत क्रीड़ा
है नहीं कोई हरे जो, द्रौपदी के उर की पीड़ा
दांव पर लगती है प्रतिदिन द्रौपदी क्षण क्षण यहां पर
आस्था थी कृष्ण में वह भी नहीं दिखते कहीं पर
कृष्ण बैठे द्वारिका में अब रचावें रासलीला
है नहीं कोई हरे जो द्रौपदी के उर की पीड़ा
है नहीं कोई धनुष, ना मत्स्य कोई है यहां पर
स्वर्ण के भंडार में ही लक्ष्य ढूंढे आज का वर
हो रहा है अश्रुओं से वधू का श्रंगार गीला
है नहीं कोई हरे जो द्रौपदी के उर की पीड़ा
सैंकड़ों ललनाएं प्रतिदिन भस्म होती हैं यहां पर
कामलोभी दानवों का घृणित नर्तन हो रहा पर
छुप गया पौरुष कहीं पर देख कर पशुता की क्रीड़ा
है नहीं कोई हरे जो द्रौपदी के उर की पीड़ा
आस तज अवलम्ब की नारी चली है अब समर पर
कर लिया निश्चय अटल होने न देगी अब स्वयंवर
ले लिया है रूप अब नारी ने दुर्गा सा सजीला
द्रौपदी ही अब हरेगी द्रौपदी के उर की पीड़ा
श्रीकृष्ण शुक्ल,
मुरादाबाद