दो छोर प्रेम और प्रेम
संवाद रुकना नहीं चाहिए,
संविदा इसकी नींव,
बहस सदन की संकल्पना,
सुख पावे है जीव.
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कला कला से धराकला
काहे की मरोड़.
मत देखो सिर्फ़ राम कला,
टूट जायेंगे बेजोड़..
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दो छोर सिर्फ़ प्रेम और प्रेम,
पहला और आखरी,, प्रेम.
देखा आंचल के तले,
सुरक्षित निर्भय एकदम.
वो प्रेम है, महक है, सुगंध है,
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जिसे अपने ही बुरे लगे,
बैरी लगे, प्रतिद्वंद्वी जान पड़े,
वो तानाशाह नफरती,
किसी के नहीं,
आत्मघाती हैं वे,,
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मर चुके जज़्बात जिनके,,
उनमें कोई उद्देश्य निहित नहीं,
पत्थर ऐसे बन चुके,
सीढी बन सकते नहीं कभी,