“दहलीज”
दहलीज को भी मेरे मीत की प्रतीक्षा रहती है,
रोज पूछती है चौखट से और दरवाजों से?
कब आओगें तुम्हारी प्रेयसी?
रोती है विलखती है ,निहारती है।
उसकी पीड़ा को मै जानती हूँ,
मुझसे वो इतना प्यार करती है।
तो तुमसे कितना करती है,
तुम्हारी चाहत में मेरा श्रृंगार करती है।
कभी जल चढाती है, कभी तोरण लगाती है,
कभी रोली लगाती है, कभी सिंदूर लगाती है।
कभी रंगोली बनाती है, कभी पुष्पों से सजाती है,
फिर वो खुद को संवारती है।
और फिर दहलीज पर खड़ी होकर निहारती है,
हर रात तुम्हारी प्रेयसी सपने सजाती है।
हर सुबह एक नई उम्मीद से दरवाजे खोलती हैं,
अब आ भी जाओ मै भी जोहूँ बाट।
आज वो दहलीज पर दीपक जलाती है,
आकर कर दो रोशन वो यही मनाती हैं।।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव।
प्रयागराज✍️