तु आदमी मैं औरत
डॉ अरुण कुमार शास्त्री एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
*तु आदमी मैं औरत *
उसको औरत बनाया मुझे आदमी
जानें क्या गुल खिलाया भले आदमी।।
वो पकाती रही आग पर रोटियां
मैं था राशन ले आया भले आदमी।।
जिस्म उसका था कोमल लजाता हुआ
मुझको लोखंड बनाया भले आदमी।।
उसको औरत बनाया मुझे आदमी
जानें क्या गुल खिलाया भले आदमी।।
वो जो बोले तो कोयल कुहूकती भरे बाग़ में
मैं जो बोलूं तो टप्पर खड़कता भले आदमी।।
भीगे बरसात में तो चम्प्पा महकने लगे
मैं जो भीगूँ तो किटकिट बजती भले आदमी।।
मैं पुलंदा शिकायतों का इक बोझ सा
उसको हँसना सिखाया भले आदमी।।
उसको औरत बनाया मुझे आदमी
जानें क्या गुल खिलाया भले आदमी।।
वो सवेरा सुहाना के जैसे हो सरसों खिली
वो कली ख्वाब की जैसे हो रूई छुई अनछुई ।।
हो गुलाबों ने जैसे करवट सी ली
मैं स्याह रात में दिखूँ भूत सा ।।
उसको औरत बनाया मुझे आदमी
जानें क्या गुल खिलाया भले आदमी।।
वो पकाती रही आग पर रोटियां
मैं था राशन ले आया भले आदमी।।
जिस्म उसका था कोमल लजाता हुआ
मुझको लोखंड बनाया भले आदमी।।
वो थी कोरा बदन जैसे संगे मरमर चमन
मैं शिला खंड सा , न किसी काम का ।।
जिस्म उसका था कोमल लजाता हुआ
मुझको लोखंड बनाया भले आदमी।।