तुम हो तो मैं हूँ
।। तुम हो तो मैं हूँ।।
तेरा, मेरा हमसफर बन जाना,
जैसे तमाम खुशियों का एक साथ जीवन में आ जाना।
तेरे गोरे मुखड़े पे काली जुल्फों का बरबस बिखर जाना,
जैसे बादलों के बीच चाँद का दिखना और रात का सँवर जाना।
तेरे नाजुक सुर्ख़ लबों का खुलना और खुलकर बंद हो जाना,
जैसे लफ्जों का कागज़ पे उतरना और उतर के छंद हो जाना।
तुम्हारी बातों का लबों से निकलना और फिजाओं में सज जाना,
जैसे हवाओं का वीणा के तारों को छूना और सरगम का बज जाना।
तेरा मुस्कुराना और शर्म से रुकसार का लाल हो जाना,
जैसे घुँघरूओं का खनकना और शाम का बेमिसाल हो जाना।
अजीब सी कशिश है तेरी आँखों में, जो मैं खिचा चला आता हूँ,
उन दो नैनों को ही ढ़ूढ़ता रहता हूँ, जब भी तुमसे दूर जाता हूँ।
तेरी खुश्बू मेरे घर – आँगन को महकाती है,
तेरी खुश्बू तेरे जाने पे तेरे होने का एहसास दिलाती है।
मैं हूँ, तुम हो और लुत्फ़-ए-ज़िंदगी है…
मैं बाग हूँ और तुम बहार हो,
मैं छंद हूँ और तुम अलंकार हो।
मैं हृदय हूँ और तुम स्पंदन हो,
मैं मस्तक हूँ और तुम चंदन हो।
मैं साँस हूँ और तुम जान हो,
मैं शख्सियत हूँ और तुम मेरी पहचान हो।
स्वाति की बूँद हो तुम जिसका था मुझे इन्तज़ार,
कोयल की कूक हो तुम जिससे है ये गुलशन गुलज़ार।
तुम हो तो दिन सुहाना है,
तुम हो तो रात हसीन है,
तुम हो तो ये सफर है,
“तुम हो तो मैं हूँ।”
रचनाकार – रूपेश श्रीवास्तव ‘काफ़िर’
स्थान – लखनऊ (उ०प्र०)