तुम्हारा सच
कविता
तुम्हारा सच
*अनिल शूर आज़ाद
दर्पण की
एक दरार ने/जब
दो चेहरों में
बांट दिया था
तुम्हारा चेहरा/तो
आगबबूला होकर
फेंक दिया था
तुमने दर्पण
चूर-चूर
हो गया था
दर्पण
पर..तब
एक अचंभा भी
हुआ था
दर्पण के
सैंकड़ो ताज़ा टुकड़ों ने
दिखाए थे/तुम्हारे
और/ढ़ेर चेहरे
और..उजागर
कर दिया था
तुम्हारा सच।
(रचनाकाल : 1988)