“तुच्छ प्राणी”
एक बार देखो तुम भी,
टटोलकर अपना हृदय,
स्पन्दन से प्रस्फुटित होगी,
दिव्य विचारों की श्रृंखला,
मानवता बिलखती सिसकती,
तुम्हारा उपहास करेगी,
तुम पाओगे स्वयं को ,
बन्धनों में छटपटाते,
चाहोगे तोडना तुम भी,
इन विचारों की श्रंखला,
मौन चीत्कार के सामने,
पाओगे स्वयं को विवश,
प्रयास तुम्हारे होंगे,
सारे के सारे विफल,
तुम तो हो तुच्छ प्राणी,
स्वयं को मान बैठे न जाने क्या,
एक बार, सिर्फ एक बार ,
उतार कर देखो तुम भी,
मुखौटा ये झूठ का,
पाओगे तुम स्वयं को,
तुच्छ प्राणी…तुच्छ प्राणी!
…निधि…