“तारा”
वो टांक रहा था बड़ी नफासत से,
आहिस्ता आहिस्ता..
आसमान के आंचल में
रात के अंधेरों तले
चाँद सितारे
छिड़क रहा था
दरियाओं पर कहकशां
आज़ाद कर दिए जुगनुओं के
झुंड के झुंड
पेड़ों झाड़ियों पर
और ‘तारा’ ढिबरी के उजाले में
उबाल रही थी पत्थर
चूल्हे की आंच को
आंसुओं से तेज करती
सोने के इंतज़ार में थी बच्चों के
और भगवान?
उसके खीसे के सारे रुपये
कहीं सरक गए थे
किसी अमीर की तिजोरी में,
और वो चुपचाप रो रहा था,
जाने किस पर?
कि सुबह पत्तों पर
ओस के क़तरे बिखरे पड़े थे
और बच्चे भूख से मरे।