तन्हाई
उम्मीदों की बिसात पर
ये जिंदगी चल रही,
बहुत उबरना चाहा पर
तेरी तन्हाई मारती गयी।
मिले थे जब से तुमसे
वह समय स्वर्णिम रहा,
अब तो बस यह जीवन
किसी तरह है कट रहा।
काश कुछ दिनों का और
तेरा सानिध्य जो पाता,
उल्फ़त की एक और
नयी गाथा मैं लिख पाता।
सोचा नही था कि ऐसे
बिछडूंगा एक दिन तुमसे,
इतने दूर चले जाओगे
तुम जुदा होकर हमसे।
सोचा था चलो ये तन्हाई
अब जीने का सहारा होगी,
पता नहीं था इसके कारण
जिंदगी इतनी कष्टप्रद होगी।
आज भी इस उधेड़बुन में
जीवन बसर कर रहा,
शायद तुमसे मिलने का
कोई तो संयोग बना होगा।
पर अब मैं क्रमशः सुनो
निराश हो कर रह गया,
तेरी यादों के सहारे केवल
जिंदगी कटने से रहा।
निर्मेष जीवन अध्यात्म की
छाँव में नही चला करता,
जमीनी हकीकत का भी
इसे सामना है करना पड़ता।
निर्मेष