टोपी
246• TOPEE/ टोपी
एक मशहूर नामचीन टोपी
मुझे मिल गई ।
और मैंने पहन भी ली।
बड़ी अजीब दास्ताँ है,
इसके मिलने की ।
मेरे अजीज दोस्त हैं,
मेरे पुराने पडोसी भी ।
अभी हाल ही में उनका शांतिपुर जाना हुआ ।
बहुत सारी टोपियाँ थीं उनके पास,
एक मुझे दे दी,”आप पहनिए”।
पूछा मैंने,”ये क्या है?”
कहे,”ये ‘बकरी ‘ टोपी है,
इसे बकरी ही बनवाती है,
बड़ों-बड़ों को पहनाती है ।”
“इससे क्या फायदा?”
“आप ‘सेक्युलर ‘ दिखेंगे,मुझसे भी ज्यादा,
जो भी खायेंगे-पियेंगे,सब हज़म होगा ।
आपके खिलाफ कोई नहीं बोलेगा,
सिर्फ आप बोलेंगे,सब सुनेंगे ।”
“अच्छी बात है ,पर आप तो शांतिपुर—-?
सुना,जेल तक जा रहे हैं?”
“अरे ओ क्या है,कभी-कभार कुछ-
‘नान-सेक्युलर ‘लोग आ जाते हैं,
अकड़ में तने रहेंगे,न खाएंगे,न ही खाने देंगे,
समझ कम होती है,
फिर वही होता है जो नहीं होना चाहिए।”
“पर लोग तो कहते हैं,वही होता है जो-
मंजूर-ए-खुदा होता है ।”
मेरे अजीज दोस्त,मेरे पड़ोसी चुप रहे,
उसी मे भला समझे।
अब एक ही टोपी मेरे पास!
ढेरों होतीं तो—–?
किसी गरीब ‘क्रिस्टीज ‘ जैसे नीलामकर्ता को देता,
उसके बच्चों का भला होता ।
हाँ जब पुरानी हो जाएगी तो—
किसी बंग्लादेशी कबाड़ी को दूंगा,
(तबतक इस देश में रहा तो!),
उसका भी भला होगा,
मशहूर नामचीन टोपी पाकर!
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—राजेंद्र प्रसाद गुप्ता (रचना,01/03/2020)•