टोकरी में छोकरी / (समकालीन गीत)
टोकरी में
छोकरी है,
छोकरी में
टोकरी है ।
छोकरी ही
टोकरी है,
टोकरी ही
छोकरी है ।
चली जाती
छन छना छन
कारखाने ।
बीड़ियाँ
अपनी भुनाने ।
बीड़ियों में
दर्द घर का ,
टोकरी में
पड़ा सरका ।
बेच देगी
आज उसको
और खुशियाँ
क्रय करेगी ।
पीर की
अविरल नदी ये
आज खुशियाँ
ले, बहेगी ।
किंतु यह क्या ?
बीड़ियाँ
छाँटीं गई हैं ,
दाम भी
काटे गए हैं ।
मिल गए हैं
दाम आधे
और कुछ
पत्ते पुराने
तल्ख़,सूखे
औ’ निरूखे ।
मिल गए
जरदे के टुकड़े ।
जुड़ गए
कुछ और दुखड़े ।
साथ ले कुछ
तल्ख़ियों को
और ताने,
फब्तियों को ।
लौट आई
घर पुराने ।
बीड़ियाँ
फिर से बनाने ।
बाँध सर पर
पोटरी है ।
पोटरी में
छोकरी है,
छोकरी में
पोटरी है ।
छोकरी ही
पोटरी है,
पोटरी ही
छोकरी है ।
छिन्न होती
कर्म-सृष्टि
टोकरी की
खिन्न होती
देह-यष्टि
छोकरी की ।
घूरता है
मूछबाला ;
सूँघता है
पूँछबाला ।
तोड़ता बीड़ी
मसलता ।
छोकरी का
दिल दहलता ।
काट लेता
पुनः पैसे ।
ऐंसे-वैंसे ,
जैसे-तैसे ।
दर्द की कुछ
गर्द लेकर ।
जा रही अब
छोकरी घर ।
वय तरुण है
लग रही, पर
डोकरी है ।
डोकरी में
छोकरी है,
छोकरी में
डोकरी है ।
छोकरी ही
डोकरी है,
डोकरी ही
छोकरी है ।
तंग गलियाँ
मनचले हैं ।
दिल नहीं है
दिलजले हैं ।
सीटियाँ ये
बजाते हैं ।
बाप को ये
लजाते हैं ।
सहन करती
इनके ताने ।
रोज़ के
किस्से पुराने
लेके मन में
क्षीण तन में
जा रही घर
बीड़ियों में
स्वप्न बुनती ;
ज़िन्दगी का
दर्द चुनती
टोकरी ही
नौकरी है ।
नौकरी में
टोकरी है,
टोकरी में
नौकरी है ।
नौकरी ही
टोकरी है,
टोकरी ही
नौकरी है ।
—- ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।