जो भूलने बैठी तो, यादें और गहराने लगी।
जो भूलने बैठी तो, यादें और गहराने लगी,
सपनों सी मुलाक़ातें, पलकों के परदों पर आने लगी।
ग़ैरों की भीड़ में, आवाज़ें तेरी गुनगुनाने लगी,
बेमक़सद सी मुस्कराहट, यूँ हीं लबों पे छाने लगी।
बारिश की ये बूँदें, सोये एहसासों को जगाने लगी,
पिघलते मोम सी, कुछ दीवारें ढह जाने लगी।
अँधेरी रात और चांदनी की बातें, अब सताने लगी,
जुगनुओं की मटरगश्ती से, राहें जगमगाने लगी।
ख़ामोश झरोखों से हो कर, खुशबुएँ तेरी आने लगी,
तन्हा इस मकां को, घर की झलक बताने लगी।
दर्द की सरगोशियां, सुकूं के चादर में सो जाने लगी,
टूटे शीशे के हर टुकड़े में, तेरे अक्स से मिलाने लगी।
दरख़्तों की छाँव, नासूर ज़ख्मों को सहलाने लगी,
तेरे ज़िक्र का मरहम, मेरे ज़हन पर लगाने लगी।
क़ायनात अपनी बेबसी के किस्से, फिर सुनाने लगी,
तुझे मुझसे चुराने की सजा, मुझे हीं दे जाने लगी।
सुबह की किरणें, बेहोशी की नींद से उठाने लगी,
रेत के उस क्षणभंगुर महल को, खारे समंदर में मिलाने लगी।