जीवन के हर पृष्ठ पर है माँ
वोट की इस दौड़ में –
कविता पीछे छूट गयी,
छंद छूट गए,
लयबद्धता टूट गई |
साहित्य गौण हो गया,
वोट की मार्केटिंग में –
कवि मौन हो गया |
हृदय का हर स्पंदन जिसका ऋणी हो,
माँ के उस असीम व्यक्तित्व को –
चंद शब्दों में सीमाबद्ध कर,
निकल पड़े भगवान भुवन भास्कर को –
दीपक दिखाने |
चले माँ का ऋण चुकाने,
नाम यश के चक्कर में कवि सयाने |
कुछ तो आपसी समझ-सहयोग को –
खूब बढ़ावा दे रहे हैं,
वोट देकर वोट ले रहे हैं,
कुछ वोट लेकर वोट दे रहे हैं |
इसमें किसका भला हो रहा हो,
साहित्य का या साहित्य पीडिया का,
या फिर सोशल मिडिया का |
मेरा सबों से करबद्ध निवेदन,
साहित्य को वोट में न बांधे,
इसे बंधन मुक्त कर दें,
उन्मुक्त गगन में उड़ान भरने दे,
हृदय की गहराईयों में उतरने दें |
विशालता को क्षुद्रता में मत खोजो,
जीवन के हर पृष्ठ पर है माँ |
ब्रह्माण्ड में जो अविराम गूंजे,
वह पावन ॐ कार स्वर है माँ |
क्रियाओं में रहकर भी नहीं रहती,
निरासक्त, निस्पृह, निर्लिप्त है माँ |
क्रियाओं के न रहने पर भी रहती,
अविचल, तटस्थ गुणातीत है माँ |
अयं निजः परोवेति माँ क्या जाने,
वसुधैव कुटुंबकम की पक्षधर है माँ |
सुख के स्वर तो अनेक होते हैं,
किन्तु हर दुःख में ओठ पर है माँ |
सप्त सिंधु जल मशी बन जाए,
सकल विपिन लेखिनी बन जाए,
धरती गर कागज बन जाए,
माँ की महिमा लिखी न जाए |
– हरिकिशन मूंधड़ा
कूचबिहार