जिन्दगी की रफ़्तार
जिन्दगी की रफ़्तार
(ट्रक ड्राइवर)
(छन्दमुक्त काव्य)
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फोर लेन के किनारे ,
बने ढाबे में बिछे खाट पर ,
बैठा सोच रहा वो ट्रक चालक ,
निकला था घर से तो ,
महीनों बीत गए सड़कों पर ।
तौलता किस्मत की स्पीडोमीटर पर ,
कर्तव्य पथ पर दिन-रात दौड़ते ,
दो धावकों की गति मन-ही-मन ।
एक वाहन की रफ़्तार और ,
दूसरा जिंदगी की रफ्तार को ।
कर्तव्यपथ तो अहर्निश है दोनों की ,
मगर रात के सन्नाटे में ,
पलकों को खुला रखने की मजबूरी ,
शिथिल होते अंगों पर कर्तव्य की चाबुक ,
तो बस है जीवनपथ की ।
कहीं आँख लग जाये तो ,
थमेगी दोनों रफ़्तार ,
जिंदगी की भी और वाहन की भी।
पर क्या करे _
समय पर माल नहीं पहुंचाया ,
तो फिर कोई भाड़ा भी न मिले।
वाहन चलाता देखता ,
टकटकी निगाहों से सड़कों पर ,
थके हारे बोझिल नेत्रों से ,
प्रातः काल की स्वर्णिम बेला आ चुकी ,
हाथ स्टेयरिंग पर रखा सोचता ,
लोग जोगिंग पर जा रहे ,
शुद्ध वायु और सेहत के लिए ,
कहते हैं कि ” स्वास्थ्य ही धन ” है ।
पर इन जर्जर फेफड़ों को तो ,
वही जले ईंधन की प्रदूषित हवा ,
मानो चीखते स्वर में कह रही हो ,
” वाहन ही तो जीवन है ”
पहले घंटो जाम में फंस घबराता था मन ,
अब तो अवरुद्ध मार्ग में डटे रहने की,
आदत सी हो चली ।
पेट की जुगाड़ करता वो जाम में फंसकर भी ,
एक दक्ष गृहिणी की तरह ,
फिर सड़क पर नीचे लेट ,
फुर्सत के दो पल व्यतीत करने ,
वाहन के अधर तल को ही ,
निज अम्बर बना लेता ।
सोचता मन-मस्तिष्क में ,
बुढ़े माँ-बाप को कहीं कुछ हो गया तो,
समय पर जा भी पाऊँ या नही।
याद आता जब उसे ,
अपने घर-परिवार का मायूस चेहरा ,
तो झल्लाता अपनी किस्मत पर ।
मगर अगले ही पल ,
हाथ स्टेयरिंग पर…
और नजर सड़कों पर…
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – २० /०६ /२०२२
आषाढ़, कृष्ण पक्ष,सप्तमी ,सोमवार ।
विक्रम संवत २०७९
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