जिंदगी
क्या जिन्दगी थी, क्या हो गई?
लोग कहते थे जिसको, तू इतनी सोशल कैसे है?
आज वही, घर मे अकेली हो गई है।
पहले जब वक़्त मिलता था तो दोस्तों के साथ होती थी गपशप,
आज वही दोस्त पराये हो गए है।
क्या जिन्दगी थी, क्या हो गई?
सोचा ना था, इंसान ऐसे बदलते हैं,
मतलब मे अपने और पीठ पीछे छूरा घोपते हैं।
जरूरत पड़ने पर मीठे, और वक़्त निकलने पर बुरे हो जाते हैं।
क्या जिन्दगी थी, क्या हो गई?
आज मन का साफ़ होना और ज़ुबान का सच्चा होना गुनाह हो गया है।
दिखावटीपन और नाटकीयता का बोलबाला हो गया है।
आज ऊंचाइयों पर पहुंचने के लिए, काबलियत की जरूरत नहीं, बल्कि कलाकारी और चमचागीरी खूबी हो गई है।
क्या जिन्दगी थी, क्या हो गई?
अब तो भरोसे पर भी भरोसा ना रहा, ये वक़्त ने जता दिया।
ठोकरें खाकर आज सीखा है सबक, दुनिया में कोई अपना है तो है सिर्फ अपना धर्म।
संग देगा तो सिर्फ अपना परिवार अन्यथा सब है बेकार।
सच्चे रहो, अच्छे रहो, खुश रहो, और रहो बेफिक्र।
जिंदगी से सीखो और जियो अपने लिए और अपनों के लिए।
जब पहला वक़्त नहीं रहा तो ये भी बीत जाएगा।
तब साथ एक दूसरे का हर किसीको चाहियेगा।
जिंदगी जिंदादिली का नाम है, ये अहसास सबको हो जाएगा।
तब तक, मैं और मेरी तन्हाई, सामने टीवी, साइड में लैपटॉप और हाथ में मोबाइल 😊
सावित्री धायल
पिलानी, राजस्थान