*ज़िन्दगी*
ज़िन्दगी…!
अनसुनी सी कोई दास्तान है –
भरोसा नहीं कि कोई इसे
आखिर तक सुना पाएगा
या
कैनवास पर उकेरा हुआ –
चित्र है अधूरा सा –
जिसे कोई कभी पूरा न कर पाये –
या
समंदर किनारे रेत पर पड़ा
कदमों का निशान है –
मालूम नहीं कब
कोई मौज बहा ले जाये –
इसके आने की
दस्तक तो सुनाई पड़ती है
मगर
जाती है ऐसे
मानो खा
ख़ामोश, बेजुबान है –
सारी दौलत लुटा कर भी
कभी खरीदी नहीं जा सकती
और कभी
मिल जाती है ऐसे
जैसे खैरात में मिला दान है –
पल-पल, लम्हा-लम्हा
जी लो इसे
वर्ना पछताओगे
क्योकि
अपनी ही मुस्तक़बिल से
यह अब तक अनजान है ।