ज़िन्दगी
अजीब शय है ये ज़िन्दगी भी, किसी भी सूरत बसर नहीं है।
उलझ गए यूँ ज़रूरतों में, ख़ुदी को ख़ुद की ख़बर नहीं है।
तलाश में एक पल सुकूँ की भटक रहा दरबदर मुसाफ़िर,
मगर न कुछ हाथ आए उसके कि उम्र सारी गुज़र रही है।
बुझे नहीं प्यास आदमी की, हमेशा ख्वाहिश रहे अधूरी,
नहीं जो है पास वो ही चाहे, मिला जो उसकी क़दर नहीं है।
दिया किसी को उजाला इतना, चमक से वो बावरा हुआ है,
किसी के घर में रहा अंधेरा कि ज़िन्दगी में सहर नहीं है।
कभी है ग़म तो कभी ख़ुशी है, ख़ुदा ने क्या ज़िन्दगी ये दी है,
किसी को सब कुछ दिया जहाँ में किसी पे उसकी नज़र नहीं है।
धुआँ-धुआँ ज़िन्दगी का हासिल, पिघल रही साँस रफ्ता-रफ्ता,
सभी लगे भागने में फिर क्यों, कि हाथ आता सिफ़र नहीं है।
मिले किसी को नहीं दोबारा, हसीन नेमत ये ज़िन्दगी की,
इसे तू ज़िंदादिली से जी ले, ये ज़िन्दगी मुख्तसर नहीं है।
किसी को प्यारी है ज़िन्दगी तो, किसी को बेशक ही खल रही है,
रहे परेशां कोई उम्र भर, किसी को कोई फिकर नहीं है।
मगर ये सच है कि ज़िन्दगी में हमेशा जद्दोजहद रही है,
रहा सफ़र ज़िन्दगी का मुश्किल, कभी भी आसाँ डगर नहीं है।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक