“ज़ायज़ नहीं लगता”
‘सब’ की चाह में ‘कुछ’ खो देना ज़ायज़ नहीं लगता।
बेतुकी जिद में सब कुछ खो देना,ज़ायज़ नहीं लगता।
शामिल नहीं है चंद गुल आज के बहार में,
इंतजार में ही रुत को देना ज़ायज़ नहीं लगता।
मझधार में है कश्ती दरिया के सामने सागर है,
दो साहिल की चाह में खुद को डुबो देना ज़ायज़ नहीं लगता।
झड़ जाते हैं पेट भी पतझड़ में दरख़्त से,
बसंत की राह में भी गुल खो देना ज़ायज़ नहीं लगता।
मेरे यारो ये दौर है ज़रा जुदा रहने का,
तनहाई में खुद को खो देना ज़ायज़ नहीं लगता।
अधूरे हैं हम तुम एक दूजे के बिना,
अधूरेपन में जश्न को देना ज़ायज़ नहीं लगता।
‘सब’ की चाह में ‘कुछ’ खो देना ज़ायज़ नहीं लगता।
ओसमणी साहू ‘ओश’ रायपुर (छत्तीसगढ़)