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30 Aug 2023 · 4 min read

महाराणा सांगा

राणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह) (12 अप्रैल, 1484 – 17 मार्च, 1527) (राज 1509-1528) उदयपुर में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे तथा राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। राणा रायमल के तीनों पुत्रों (कुँवर पृथ्वीराज, जगमाल तथा राणा सांगा) में मेवाड़ के सिंहासन के लिए संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। एक भविष्यकर्त्ता के अनुसार सांगा को मेवाड़ का शासक बताया गया था। ऐसी स्थिति में कुँवर पृथ्वीराज व जगमाल अपने भाई राणा सांगा को मौत के घाट उतारना चाहते थे, परंतु सांगा किसी प्रकार यहाँ से बचकर अजमेर पलायन कर जाते हैं, तब सन् 1509 में अजमेर के कर्मचंद पंवार की सहायता से राणा सांगा को मेवाड़ राज्य प्राप्त हुआ। महाराणा सांगा ने सभी राजपूत राज्यों को संगठित किया और सभी राजपूत राज्यों को एक छत्र के नीचे लाए। उन्होंने सभी राजपूत राज्यों से संधि की और इस प्रकार महाराणा सांगा ने अपना साम्राज्य उत्तर में पंजाब सतलज नदी से लेकर दक्षिण में मालवा को जीतकर नर्मदा नदी तक कर दिया। पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में बयाना, भरतपुर व ग्वालियर तक अपना राज्य विस्तार किया। इस प्रकार मुसलिम सुल्तानों की डेढ़ सौ वर्ष की सत्ता के पश्चात् इतने बड़े क्षेत्रफल में हिंदू साम्राज्य कायम हुआ। इतने बड़े क्षेत्रवाला हिंदू साम्राज्य दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य ही था। उसने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को खातौली व बाड़ी के युद्ध में 2 बार परास्त किया, : गुजरात के सुल्तान को भी हराया व उसे मेवाड़ की तरफ बढ़ने से रोक दिया, यद्यपि बाबर से खानवा के युद्ध में राणा परास्त हुए, लेकिन उन्होंने बाबर से बयाना का दुर्ग जीत लिया। इस प्रकार राणा सांगा ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी। वे 16वीं शताब्दी के सबसे शक्तिशाली शासक थे, इनके शरीर पर 80 घाव थे। इनको हिंदूपत की उपाधि दी गई थी। इतिहास में इनकी गिनती महानायक तथा वीर के रूप में की जाती है। महाराणा संग्राम सिंह, महाराणा कुंभा के बाद मेवाड़ में सबसे महत्त्वपूर्ण शासक हुए। इन्होंने अपनी शक्ति के बल पर मेवाड़ साम्राज्य का विस्तार किया और उसके तहत राजपूताना के सभी राजाओं को संगठित किया। रायमल की मृत्यु के बाद 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के महाराणा बन गए । सांगा ने अन्य राजपूत सरदारों के साथ सत्ता का आयोजन किया । राणा सांगा ने मेवाड़ में 1509 से 1528 तक शासन किया, जो आज भारत के राजस्थान प्रदेश में स्थित है। राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा सही मायनों में एक बहादुर योद्धा व शासक थे, जो अपनी वीरता और उदारता के लिए प्रसिद्ध हुए। उन्होंने बाहरी आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से रक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे।

फरवरी 1527 ई. में खानवा के युद्ध से पूर्व बयाना के युद्ध में राणा सांगा ने मुगल सम्राट् बाबर की सेना को परास्त कर बयाना का किला जीता। खानवा की लड़ाई में हसन खाँ मेवाती राणाजी के सेनापति थे। युद्ध में राणा सांगा के कहने पर राजपूत राजाओं ने पाती पेरवन परंपरा का निर्वहन किया। बयाना के युद्ध के पश्चात् 17 मार्च, 1527 ई. में खानवा के मैदान में राणा सांगा जब घायल हो गए, पर किसी तरह बाहर निकलने में सफल रहे। इस कार्य में कछवाह वंश के पृथ्वीराज कछवाह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया तथा पृथ्वीराज कछवाह द्वारा ही राणा सांगा को घायल अवस्था में काल्पी (मेवाड़ ) नामक स्थान पर पहुँचाने में सहायता दी गई, लेकिन असंतुष्ट सरदारों ने इसी स्थान पर राणा सांगा को जहर दे दिया। ऐसी अवस्था में राणा सांगा पुनः बसवा आए, जहाँ 30 जनवरी, 1528 को उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन राणा सांगा का विधिविधान से अंतिम संस्कार मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में हुआ। एक विश्वासघाती के कारण वह बाबर से युद्ध हारे, लेकिन उन्होंने अपने शौर्य से दूसरों को प्रेरित किया। इनके शासनकाल में मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था।

एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की रक्षा तथा उन्नति की । राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आँख, एक टाँग खोने व अनगिनत जख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान् पराक्रम नहीं खोया, सुल्तान मोहम्मद शाह माण्डु को युद्ध में हराने व बंदी बनाने के बाद उन्हें उनका राज्य पुनः उदारता के साथ सौंप दिया, यह उनकी बहादुरी को दरशाता है। खानवा की लड़ाई में राणाजी को लगभग 80 घाव लगे थे, अतः राणा सांगा को सैनिकों का भग्नावशेष भी कहा जाता है। बाबर भी अपनी आत्मकथा में लिखता है कि “राणा सांगा अपनी वीरता और तलवार के बल पर अत्यधिक शक्तिशाली हो गया है। वास्तव में उसका राज्य चित्तौड़ में था। मांडू के सुल्तानों के राज्य के पतन के कारण उसने बहुत से स्थानों पर अधिकार जमा लिया। उसका मुल्क 10 करोड़ की आमदनी का था, उसकी सेना में एक लाख जवान थे। उसके साथ 7 राज्य और 104 छोटे सरदार थे। उसके तीन उत्तराधिकारी भी यदि वैसे ही वीर और योग्य होते तो मुगलों का राज्य हिंदुस्तान में जमने न पाता।”

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