जब याद आती है तुम्हारी
मुझे याद आती है जब भी तुम्हारी,
आईने की नजरों में तुम्हें देखता हूँ,
बड़ी फुर्सत से घुंघराले बालों को सुलझाती
कंघी में फंसे बालों को देखता हूँ..
नही मिलती हो मुझे तुम जब यहाँ पर
तो मैं रसोई में बर्तनों से खेलता हूँ
तुम्हारे हाथों का स्पर्श उनमें पाकर,
आटे में सने बेलन को पकड़ता हूँ..
यहाँ से भी तुम अगर हो जाती हो गायब
हाथों में चाय के उस मग को थामता हूँ,
जिसे तुम हर सुबह अपने लबों से छूती हो
तुम्हारे लबों की उस छाप को चूमता हूँ..
यहाँ भी अगर नही मिलती हो मुझको,
बालकनी में रस्सी पर टँगे कपड़ो से पूछता हूँ,
अपने नरम हाथों से जिसने सुखाया,
उन कपड़ों को गोदी में लेकर, तुम्हें आगोश में लेता हूँ..
हो रुसवा तुम अगर इस जगह से भी तो,
बिस्तर पर फैली चादर की सिलबटों पर हाथ फेरता हूँ,
कहाँ है मेरी जान निसार बेगम,
उससे तुम्हारे दिल का हाल पूछता हूँ …
मिलती नही हो मुझे तुम जब आशियाने में
आँखें बंद कर दिल पर हाथ रखता हूँ
तुम्हारा चेहरा, खिले फूल जैसा
अपनी नजरों के सामने देखता हूँ…
अचानक से खुल जाती है मेरी आँखें
जब घर में तुम्हारे पायलों की खनक सुनता हूँ
बड़ा परेशान करती है चूड़ियां तुम्हारी
बिस्तर के सिरहाने पर जब उन्है हंसते देखता हूँ..।।
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07