जंगल-जिएँ
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मेघ पहाड़ों पर टिका, आसमान पर चाँद।
वन-विहीन इस प्रान्त में ढ़ूंढ़ रहा है छांव।
वन उजाड़कर चला गया, वन का ठीकेदार।
विरह,क्षुधा,दुःख दे गया वनवासी के द्वार।
वन की बाला का सजन चला गया परदेस।
विरहन भू को पूजती हो वन का श्री गणेश।
“व्यथा बड़ी परदेस गये का भूमि,तुम तो जानो।
हो समर्थ हे मैया भूमि, दो रोटी तो दे पाओ।
कोयल उड़ा आकाश में, खोज रहा है ठांव।
थककर गिरने के पहले,उगो वृक्ष का गाँव।
महुए का वन खो गया,वनवासी का प्राण।
करता यह मदमत्त था,था पिघलाता ‘पाषाण’।
पुष्प,कंद,फल,मूल का यूँ उजड़ गया संसार।
स्नेह,प्रेम,रस,गंध,प्रीत का हो गया बंटाढार।
हाँ,वसंत आता सखि,काम किन्तु निष्प्राण।
क्योंकि,हवा के धनुष पर नहीं पुष्प का वाण।
पत्थर चुभता पांव को,आंख को नग्न पहाड़।
हे सखि,दुःख की क्या कहूँ,जल हुआ जैसे ताड़।
दुखती कमर घड़ा भरा, उठते ही नहीं पैर।
जाने जल को क्या हुआ चुका रहा क्या वैर!
सूरज तीखा हो गया,पथ,बिन-छाँह अथाह।
चले सुबह ही मरद,बरद;गाँव न पहुंचे आह!
हवा शीतल गदहे का है सिंग बन गया।
श्रम का वैरी था श्रम का सखा बन गया।
राह पर राही बिन छाँह है बेहाल सखी।
खग नीड़ जो बनाये तो किस पर सखी।
बरगद की लोगों ने धूनी उड़ा दी,है पीपल कटा।
महुआ,सखुआ,पलास,आम,शीशम कटा।
उगता तृण था जहाँ कंकड़,पत्थर उगा।
झाड़ी,झंखाड़,पौधा,लता लापता।
जीव-जन्तु विह्वल भूखा,प्यासा विकल।
नदियाँ सूखी हैं बालू का मन भी विकल।
नयन जोडकर खड़ी रही षोडशी घर के द्वार।
वन-विहीन पथ दे गया उसे विरह उपहार।
कागा जो कहीं डाकता पुलकित होता गात।
पर,वह बैठे कहो कहाँ?कहीं न वृक्ष न गाछ।
हाँ जंगल भयावह, वह अपनों का भय है।
इस बंजर का भय तो ‘परायों’ का भय है।
पेड़ निष्प्राण हुआ निपट निपात भी।
ठूंठ अब रह गया था खूबसूरत कभी।
चुंथ गया नुंच गया गात इसका सखी।
असमय वृद्ध हुआ, भर झुर्रियों से सखी।
सभ्यता का वहन इन वनों ने किया।
पाला-पोसा तथा सम्मान इसने किया।
मान तोड़े अब गये प्राण तोडा अब गया।
जंगलों का शान छिन्न-भिन्न अब हो गया।
जिए जितने हैं पल,वृक्ष के अंक में पास जंगल रहा।
साँस लेते हुए, छोड़ते भी तथा वन का सम्बल रहा।
पेड़ संस्कार था,जीवनाधार था,खेल-कूद का अपना साथी सखी।
गीत में था रचा,छंद में था बसा;देह के गंध में एवं रस सा रसी!
वृक्ष की संस्कृति भारतीय संस्कृति भारतीय सभ्यता।
त्याग,सेवा से अभिभूत तपस्वी संस्कृति,दार्शनिक सभ्यता।
वृक्ष को पूजती कौन जाति कहाँ! बस हमीं हैं, हमीं हैं।
जीवनाधार उपजो,फूलो-फलो;स्वर्ग है जो कहीं तो यहीं है,यहीं है।
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