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10 Mar 2022 · 8 min read

*आचार्य बृहस्पति और उनका काव्य*

आचार्य बृहस्पति और उनका काव्य
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#आचार्य_बृहस्पति ( जन्म 20 जनवरी 1918 : मृत्यु 31 जुलाई 1979 ) _के जन्म को सौ वर्ष बीत गए । आचार्य बृहस्पति का जन्म रामपुर में प्रतिष्ठित ब्राह्मण-परिवार में हुआ था।
आचार्य बृहस्पति ने अखिल भारतीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की । अपनी प्रतिभा के बल पर वह जिस क्षेत्र में गए, वहाँ अपनी धाक जमा ली। चाहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रारंभ में सक्रिय रहे हों, चाहे हिंदी साहित्य में काव्य रचना का कार्य हो अथवा बाद में संगीत की साधना के लिए स्वयं को समर्पित करने का क्षेत्र हो ,उनकी विशेषता यह थी कि वह शिखर पर पहुँचे।
उनका आकर्षक व्यक्तित्व था। मुझे उनके दर्शन का सौभाग्य मिला था ,जब एक बार वह रामपुर में हमारी दुकान पर आए थे। पूज्य पिताजी श्री रामप्रकाश सर्राफ से उनका बहुत निकट का संबंध था। जब पूज्य पिताजी ने 1956 में सुन्दरलाल इंटर कॉलेज की शुरुआत की तो श्री गुरुजी तथा नानाजी देशमुख आदि के साथ-साथ आचार्य बृहस्पति का शुभकामना संदेश भी प्राप्त हुआ था।
शुभकामना पत्र इस प्रकार है:-
“”””””””””””””””””‘””””””””””””””
कानपुर 11-7-56
प्रिय राम प्रकाश जी
शुभाशीष:। पत्र अभी-अभी मिला। अपने स्वर्गीय नाना जी की पुण्य स्मृति में जूनियर हाई स्कूल की स्थापना करके आप एक मंगल कार्य कर रहे हैं। हम रामपुर निवासी शिक्षा के संबंध में पूर्णतया शासन का मुँह जोहने के अभ्यस्त रहे हैं। ऐसी स्थिति में आपका यह पुण्य प्रयास रामपुर के अन्य विशिष्ट नागरिकों के लिए भी अनुकरणीय है।
स्कूल अनुदिन उन्नति करे, यह मेरी शुभकामना है ।
आपकी संस्था के हित में प्रत्येक उचित कार्य करने के लिए मैं दृढ़ संकल्प हूँ।
आशीर्वादक
बृहस्पति
———————
फिर जब श्री सुन्दरलाल जी की पहली बरसी पर किसी महान आध्यात्मिक विभूति का कार्यक्रम सुन्दरलाल विद्यालय में आयोजित करने का विचार पूज्य पिताजी ने बनाया, तब उसके लिए गीता मर्मज्ञ पंडित दीनानाथ दिनेश जी का नाम आचार्य बृहस्पति ने ही सुझाया था । आचार्य बृहस्पति का चयन सर्वश्रेष्ठ था और सचमुच दिनेश जी से पूज्य पिताजी का यह संपर्क बहुत आनंदप्रद रहा। अंत तक इस संबंध को दिनेश जी और पूज्य पिताजी ने निभाया।
आचार्य बृहस्पति के निधन पर दूरदर्शन ने जहाँ तक मुझे ख्याल आता है, लगभग आधे घंटे का श्रद्धाँजलि कार्यक्रम प्रसारित किया था। प्रस्तुतकर्ता की तस्वीर अभी भी मेरी आँखों में घूम रही है, यद्यपि उनके नाम से मैं परिचित नहीं हूँ। उस जमाने में टीवी के चैनल नहीं होते थे तथा दूरदर्शन पर आधे घंटे की श्रद्धाँजलि एक अलग ही मायने रखती थी ।
आचार्य बृहस्पति ने संगीत के क्षेत्र में अपनी निरंतर साधना से ऊँचा स्थान प्राप्त किया था, जो उनकी राष्ट्रीय ख्याति का मुख्य आधार बना। उन्होंने भरतमुनि के संगीत- सिद्धांत के आधार पर एक पुरानी संस्कृत की पुस्तक के कुछ अधूरे प्रष्ठों को भारी परिश्रम तथा शोध परक कार्य के द्वारा पूर्ण किए थे। इस कार्य से आपको काफी ख्याति मिली ।आपने बृहस्पति वीणा की रचना भी की थी तथा इस वीणा पर संगीत के बहुत से सैद्धांतिक पक्षों को व्यवहार रूप में प्रदर्शित किया था । इस तरह संगीत में थ्योरी और प्रैक्टिकल दोनों क्षेत्रों में आप की विद्वत्ता अपरंपार थी । मूलतः आप भारत और भारतीयता के स्वाभिमानी हस्ताक्षर थे। आपकी न केवल वाणी ओजस्वी थी ,अपितु आप की विचारधारा भारत के इतिहास और उसकी महान संस्कृति को बहुत गौरवशाली रीति से प्रस्तुत करने वाली थी । रामपुर के पुराने सामाजिक कार्यकर्ता श्री भोलानाथ गुप्त की मृत्यु के पश्चात मैंने उनके कुछ लेखों का संग्रह 2011 में ” श्री भोलानाथ गुप्त के लेख” शीर्षक से प्रकाशित किए थे। उसमें एक लेख आचार्य बृहस्पति पर भी था। यह पढ़ने योग्य है।

आचार्य बृहस्पति की प्रसिद्धि का मुख्य आधार उनकी संगीत साधना है ,लेकिन काव्य के क्षेत्र में भी उनका योगदान किसी से कम नहीं है । वास्तव में संगीत के क्षेत्र में समर्पित होने से पहले बृहस्पति जी अपनी कविताओं के लिए जाने जाते थे। उनके शिष्यों तथा प्रशंसकों के बीच लोकप्रिय उनकी कविताएँ उनके चाहने वालों को कंठस्थ हो गई थीं। युवावस्था के प्रभात में बृहस्पति जी के श्रीमुख से जो कविताएँ उन्होंने सुनी थीं, वह उन्हें वृद्धावस्था के ढलान पर भी खूब अच्छी तरह याद रहीं।
बृहस्पति जी के जीवन का पूर्वार्ध रामपुर में बीता । यहीं उनकी सक्रियता मुखर हुई । रामपुर में बृहस्पति जी के प्रशंसकों में एक नाम श्री भोलानाथ गुप्त का था । उन दिनों आचार्य बृहस्पति रामपुर के सार्वजनिक जीवन में कैलाश चंद्र शास्त्री नाम से जाने जाते थे । उनको कुछ लोग कैलाश जी और कुछ लोग शास्त्री जी कहकर आखिर तक स्मरण करते रहे ।यद्यपि 1956 में मेरे पिताजी श्री राम प्रकाश सर्राफ को लिखे गए एक पत्र में उन्होंने अपने हस्ताक्षर बृहस्पति -केवल बृहस्पति- लिखकर किए थे । इसका अर्थ यह है कि कैलाश चंद्र शास्त्री यह संबोधन बहुत पीछे छूट गया था । अब वह आचार्य बृहस्पति थे। भोलानाथ जी उनकी एक कविता को अपनी याददाश्त के आधार पर अपने जीवन के आखिरी दशक में भी स्मरण करते रहते थे। एक लेख में उन्होंने उस कविता को उद्धृत इस प्रकार किया है :-

बरसों से सोए सिंह जाग।।
पंचानन प्रबल पराक्रम से
अब आज भयंकर खेल फाग ।।
क्यों रहे विपिन हुंकार-हीन
मतमत्त बने क्यों द्विरद जीन
रिपुललनाओं के मुख मलीन
क्यों न हों ?
न उजड़े क्यों सुहाग ?
बरसों से सोए सिंह जाग।।
(श्री भोलानाथ गुप्त के लेख :संग्रह कर्ता रवि प्रकाश पृष्ठ 13 ) काव्य के क्षेत्र में आचार्य बृहस्पति के योगदान का स्मरण करते हुए इसी पुस्तक में जो कि मेरे द्वारा 2011 में प्रकाशित की गई थी, श्री भोलानाथ जी लिखते हैं
:- “ यहाँ यह स्मरणीय है कि वह संगीतज्ञ बनने से पूर्व साहित्यकार थे। साहित्य रचना में उनकी कविताएँ उल्लेखनीय हैं । उन्होंने अनेक गीत भी लिखे। उन दिनों में फिल्मों में उर्दू बहुल गीत चलते थे । कैलाश जी ने सरल हिंदी में सिनेमा के लिए गीत लिखे । “(वही पृष्ठ 13)
श्री भोला नाथ जी के समान ही आचार्य बृहस्पति के प्रशंसकों में एक नाम रामपुर के मूल निवासी श्री नरेंद्र किशोर इब्ने शौक का भी है ।आप रामपुर के मशहूर शायर श्री रघुनंदन किशोर एडवोकेट शौक के सुपुत्र हैं। 1987 में आपने अपने पिताजी की कुछ काव्य रचनाओं का संग्रह चंद गजलियात के नाम से प्रकाशित करवाया और उसमें आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति की रचनाओं को भी एक पृष्ठ प्रदान किया ।
आइए एक रचना का रसास्वादन करते हैं :-
भैरव गर्जन से गुंजित दिग्मंडल का कोना कोना है
रुधिर चाहिए आतताईओं का इतिहासों को धोना है
सिद्ध करो तुम वर्तमान में जीत सदा है हार नहीं है
अरे प्रार्थना से झुकने वाला निष्ठुर संसार नहीं है।।

खड्ग निकालो रण- प्राँगण में ढेर लगा दो बलिदानों का
बदला ले लो दीवारों में चुनी हुई गुरु संतानों का
अत्याचार क्षमा करना तो भारत का आधार नहीं है
अरे प्रार्थना से झुकने वाला निष्ठुर संसार नहीं है ।।

कुत्ते भी हैं जूठे टुकड़ों को खाकर इतराने वाले
दूर-दूर से भूखे मृगराजों का मुँह बितराने वाले
वह क्या जानें भोजन उनका वेतन है आहार नहीं है
अरे प्रार्थना से झुकने वाला निष्ठुर संसार नहीं है ।।
( चंद गजलियात पृष्ठ चार )
भोला नाथ जी गुप्त तथा नरेंद्र किशोर जी दोनों को ही आचार्य बृहस्पति की जो कविताएँ स्मरण रहीं , वह राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाने वाली ,देश को बलशाली बनाने वाली और भारत के प्रत्येक नागरिक के हृदय में देशभक्ति का ज्वार पैदा करने वाली कविताएँ हैं। वह कविता ही क्या जो देश भक्तों के हृदय में भावनाओं का ज्वार उत्पन्न न कर दे । अपने इस उद्देश्य में आचार्य कैलाश चंद्र देव बृहस्पति सफल सिद्ध हो रहे हैं । वह एक राष्ट्रीय प्रयोजन लेकर अपनी युवावस्था के प्रभात में सक्रिय हुए थे तथा सार्वजनिक जीवन में उन्होंने ऐसे प्रबुद्ध तथा देशभक्ति से ओतप्रोत नवयुवकों को तैयार किया था, जिनके लिए भारत माता की उपासना जीवन का सर्वोच्च ध्येय था । इसी ध्येय को आचार्य बृहस्पति अपनी कविताओं के माध्यम से पुष्ट कर रहे थे।
जिन दिनों आचार्य बृहस्पति ने कविताएँ लिखीं, उस दौर में पूरी तरह खड़ी बोली का प्रभाव नहीं आ पाया था। ब्रजभाषा परंपरागत रूप से काव्य रचना का माध्यम थी और उसका प्रयोग कवि जन अपने काव्य में कर रहे थे ।आचार्य बृहस्पति ने भी घनाक्षरी छंद मधुर ब्रजभाषा में रचे और हृदय की भक्ति भावना को प्रकट किया। रचना धर्मिता की विविधता की दृष्टि से यह छंद विशेष रुप से ध्यान देने योग्य है :-

जो पै राम नाम आसरो भयो सो मन माहीं
रहिए निसंक बनिहै न बिगरी कहा(1)
जो पै हनुमान मानिए सखा तो सोचिए
कि बीति है न बापुरी अमंगल धरी कहा(2)
जो पै काम आपन करावन चहे हैं राम ,
जोग छेम देखिहैं सो तुमरो परी कहा(3)
जो पै आप मानिए निमित्त मात्र तो भला
सोचत रहत पुनि बुधि बाबरी कहा (4)
भक्ति भावना की दृष्टि से उपरोक्त छंद महत्वपूर्ण है । सब कुछ ईश्वर को समर्पित करके अपना योगक्षेम ईश्वर के हाथ में देकर भक्त निश्चिंत हो जाता है और जीवन में सबसे बड़ा सुख प्राप्त कर लेता है । यह छंद कवि की बहुमुखी प्रतिभा को भी दर्शाता है तथा काव्य की विविध प्रवृत्तियों में उसकी रचना क्षमता प्रकट होती है।
आचार्य बृहस्पति की काव्य प्रतिभा बहुआयामी थी। उनकी कविताओं के कई रंग हैं । न केवल विचारधारा की दृष्टि से उन्होंने वीर रस के गीतों के अतिरिक्त भक्ति रस की रचनाएँ प्रस्तुत कीं, बल्कि जिस प्रकार के भाव उनके मन में आए ,उनको प्रकट करने के लिए उन्होंने ठेठ उर्दू शब्दों के प्रयोग से भी कोई परहेज नहीं किया । आखिर वह रामपुर की जमीन पर पैदा हुए थे ,जहाँ उर्दू का विशाल साम्राज्य 200 वर्षों से स्थापित रहा है । राष्ट्रीय विचारधारा के पोषण के संबंध में जहाँ एक ओर उनकी संस्कृतनिष्ठ हिंदी शब्दावली काव्य में प्रस्फुटित हो रही है , वहीं दूसरी ओर उर्दू के शब्दों का उपयोग करते हुए उन्होंने सहज और सरल भावों की अभिव्यक्ति की है । ऐसे ही एक उर्दू के शब्दों से ओतप्रोत मुक्तक में उन्होंने श्रंगार के वियोग पक्ष का बड़ा ही मार्मिक लेकिन अनूठे अंदाज में चित्रण किया है :-

मेरे जज्बात की तौहीन ,मुबारक तुमको
मेरा ये चेहरए गमगीन ,मुबारक तुमको
मैं तुम्हारा हूँ , यही साख बनी रहने दो
उनके आगोश में तस्कीन ,मुबारक तुमको
……………………….
जज्बात =भावनाएँ
तौहीन =अपमान
तस्कीन =संतोष
………………………..
उर्दू के शब्दों का प्रयोग करते हुए जो रचनाएँ आचार्य बृहस्पति ने लिखीं, उनमें भी उनके स्वाभिमानी तेवर हमेशा की तरह विद्यमान नजर आते हैं। यह रचना इस दृष्टि से विशेष आकर्षण चाहती है:-

ओ मेरी आन ,भला तुझसे मुझे क्या कहना
तू मेरी रूह ,मेरी शान ,मेरा आलम है
मैं जमाने को झुका लूँगा ,हकीकत की कसम
तू अगर है ,तो भला तू ही बता ,क्या गम है

एक और उद्गार उन्होंने अपने ही अंदाज में प्रगट किए हैं जो बताते हैं कि बृहस्पति जी अभिमानी तो नहीं थे , लेकिन हाँ उन्हें अपनी विशिष्टता की पहचान थी । वह अपने गुणों को पररखते थे और उनका जीवन वास्तव में एक उद्देश्य के लिए समर्पित था । जिसमें उन्होंने सफलता प्राप्त की । रचना इस प्रकार है :-

हम निराले हैं ?अनोखे हैं ? अजब हैं ? सच है
यानी कुछ ऐसे हैं जैसा कि कोई और नही
कोई मसरफ तो हमारा है जमाने के लिए
हम पे जो गुजरा न हो ऐसा कोई दौर नहीं
…………………………….
मसरफ =उपयोगिता, प्रयोजन
……………………….
( साहित्य संगीत संगम द्वारा आयोजित आचार्य बृहस्पति पुण्य जयंती समारोह स्मारिका , पृष्ठ 40 )
इस तरह हम पाते हैं कि आचार्य बृहस्पति ने एक कवि के रूप में अपने श्रोताओं और पाठकों के हृदयों पर शासन किया ।अपनी कविताओं के द्वारा राष्ट्र को झकझोरा । स्वाभिमान को व्यक्ति और राष्ट्र की अमूल्य पूँजी घोषित किया और एक नव स्वाधीन राष्ट्र में जिस प्रकार की राष्ट्रीय भावनाओं का अभ्युदय होना चाहिए, उस उद्देश्य के लिए स्वयं को और अपनी कविताओं को समर्पित किया ।
—————————————————-
लेखक:रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99 97 61 5451

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