Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 4 min read

रस का सम्बन्ध विचार से

किसी भी प्राणी के लिए किसी भी प्रकार के उद्दीपक [स्वाद, ध्वनि, गंध, स्पर्श, दृश्य] के प्रति मानसिकक्रिया का प्रथमचरण संवेदना अर्थात् उद्दीपक की तीव्रता, स्वरूप आदि के समान वेदन [ज्ञान] की स्थिति होती है। जब तक प्राणी इस ज्ञान का प्रत्यक्षीकरण अर्थात् उसे कोई अर्थ नहीं दे पाता, तब तक उस प्राणी के अंदर एक ऐसी स्थिति बनी रहती है, जिसे किसी भी प्रकार स्पष्ट नहीं किया जा सकता। लेकिन जब प्राणी उस उद्दीपक के प्रति जन्मी संवेदना को अर्थ प्रदान कर वैचारिक रूप से ऊर्जस्व होता है तो उसके मन में एक भावदशा उद्बुद्ध होती है, उसी का प्रकटीकरण अनुभावों से होता है।
संवेदना के बिना किसी भी प्राणी में भावदशा का निर्माण संभव नहीं है। संवेदना का मूल स्त्रोत हमारी इंद्रियाँ हैं, जिनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को मानव अपने मस्तिष्क में स्मृति-चिन्हों के रूप में एकत्रित करता रहता है। वस्तुतः यही ज्ञान मनुष्य के अनुभव, अनुभूति और रस आचार्यों द्वारा बताए गए ‘स्थायी भाव’ का विषय बनता है।
इंद्रियबोध से लेकर अनुभाव, अनुभव और अनुभूति की इस जटिल प्रक्रिया में मनुष्य अपनी चिंतन दृष्टि के सहारे जिस प्रकार के निर्णय लेता है, उसमें उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। इन भावों की पहचान हम अनुभावों के सहारे करते हैं। प्रेम, हास, उत्साह, क्रोध, भय, घृणा आदि के निर्माण की प्रक्रिया हमारी निर्णय क्षमताओं के अंतर्गत ही देखी जा सकती है। मनुष्य का समूचा मनोव्यवहार इतना जटिल है कि हम किसी भी उद्दीपक को दुःखात्मक या सुखात्मक अनुभूतियों का विषय गणित के नियमों की तरह नहीं बना सकते। उद्दीपक के रूप में कोई भी सामग्री, दुःखात्मक या सुखात्मक, हमारे निर्णयों, वैचारिक अवधारणाओं के अनुसार होती है। अर्थात् अपने इंद्रियबोध के माध्यम से हम जिस प्रकार के निर्णय लेते हैं, हमारे मन में उसी प्रकार के भाव जागृत हो जाते हैं। भिखारी को हाथ पसारे हुए देखकर एक व्यक्ति में करुणा और दया उद्बुद्ध हो सकती है। वह उसकी सहायता के लिए कुछ पैसे उसके कटोरे में कुछ पैसे डाल सकता है, जबकि दूसरे व्यक्ति में भिखारी के प्रति घृणा और क्रोध के भाव जागृत हो सकते हैं, वह उसको समाज का कोढ़ मानकर गालियाँ दे सकता है। इसके विपरीत तीसरे व्यक्ति के मन में भिखारी के कटोरे में पड़े पैसों को देखकर लालच पनप सकता है। वह भिखारी से पैसों को छीनने का विचार बना सकता है। भिखारी के प्रति पनपी उक्त प्रकार की विभिन्न भावदशाएँ, वस्तुतः मनुष्य के उन वैचारिक निर्णयों की देन है, जो संस्कारित मूल्यों के कारण बनते हैं।
एक शोषक के मन में शोषित व्यक्ति की दयनीय दशा, करुणा के संवेगों का सचार इसलिए नहीं कर पाती, क्योंकि उसके संस्कार शोषक विचारधाराओं के पोषक होते हैं, जबकि एक मानवीयदृष्टि से युक्त लेखक या व्यक्ति शोषितों की दयनीय, निर्बल और असहाय दशा देखकर करुणा से द्रवीभूत हो उठता है।
किसी भी व्यक्ति के लिए प्रेम जैसी सुखात्मक अनुभूति, आवश्यक नहीं है कि उस व्यक्ति को सुखात्मक अनुभूति की ओर ही ले जाये और उसमें हर स्थिति में कथित रति ही जागृत हो, जिसका परिपाक शृंगार-रस के रूप दिखायी दे। सच तो यह है कि हर सामाजिक अपनी अवधारणाओं, मान्यताओं के अनुसार ही विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों के प्रति भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रेम-तत्वों का निर्धारण करता है और उक्त प्रेम तत्व को अपनी मान्यताओं के आधार पर अनुभाव में प्रकट करता है। हर नारी को देखकर पुरुष में एक ही प्रकार की रसदशा जागृत नहीं हो जाती। माँ, बहिन, पत्नी, प्रेमिका आदि के प्रति प्रकट किया गया प्रेम, मानव के संस्कारित वैचारिक मूल्यों के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों में उद्बुद्ध होता है।
कविता चूंकि समाज द्वारा समाज के लिए लिखी गई रागात्मक संबंधों की वैचारिक प्रस्तुति है, अतः उस पर सामाजिक मान्यताओं, परिस्थितियों, आस्थाओं, संस्कारों का प्रभाव न पड़े, ऐसा संभव ही नहीं। भक्तिकालीन कवि गोस्वामी तुलसीदास यदि नारी की संवेदनशीलता को एक ओर रख, उसे प्रताड़ना की अधीकारिणी बना डालते हैं तो रीतिकालीन कवि उसी नारी को एक भोग-विलास की वस्तु मानकर उसके साथ रास रचाते हुए कथित आनंद अवस्था को प्राप्त होते हैं, जबकि मैथिलीशरण गुप्त उसी नारी को अबला, प्रताडि़त, असहाय और दलित अनुभव करते हैं। नारी के प्रति भक्तिकाल में उद्बुद्ध क्रोध करुणा और दया के भाव कवियों की मान्यताओं, वैचारिक अवधारणाओं के कारण ही काव्य में भिन्न-भिन्न रसों का विषय बने हैं।
वस्तुतः मनुष्य की वृत्तियाँ, प्रवृत्तियाँ उसकी वैचारिक दृष्टि के कारण जन्म लेती हैं, विकसित होती हैं तथा इन्हीं वृत्तियों के अनुसार व्यक्ति में घृणा, वात्सल्य, करुणा, दया, शृंगार आदि की निष्पत्ति होती है। व्यक्ति की इन विचारधाराओं को समझे बिना किसी भी प्रकार की रागात्मकवृत्ति के विश्वव्यापी प्रसार, विस्तार की कल्पना नहीं की जा सकती। काव्य योग की साधना , सच्चे कवि की वाणी तभी बन सकती है जबकि वह कविता जैसे मानवीय मूल्य को चिंतन-मनन की सत्योन्मुखी दृष्टि के साथ प्रस्तुत करे। अगर वह ऐसा करता है तो उसे विधि के बनाए जीवों के प्रति तरह-तरह की आशंकाएँ उत्पन्न होने लगेंगी और वह रीतिकालीन कवि ठाकुर की मान्यता- ‘विधि के बनाए जीव जेते हैं जहाँ के तहाँ, खेलत फिरत तिन्हें खेलन फिरन देव’, को जब अनुभव और तर्क की कसोटी पर परखेगा तो वह अपनी मानवीय संवेदनशीलता के कारण यह कदापि नहीं चाहेगा कि जो जीव जहाँ खेल रहा है, वहीं उसे खेलने दिया जाये। वह बच्चे को आग के, मेमने को शे’र के, शोषित को शोषक के चंगुल से बचाने का प्रयास करेगा। यही बचाने का प्रयास जब शेष प्रकृति के प्राणियों के सुख सौंदर्य के साथ रागात्मक संबंध स्थापित करेगा तो रक्षा, करुणा, दया, विरोध और विद्रोह जैसी रसात्मक अवस्थाओं में उद्बुद्ध हो उठेगा।
—————————————————-
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
529 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
मेरे हमसफ़र ...
मेरे हमसफ़र ...
हिमांशु Kulshrestha
हिन्दी दिवस
हिन्दी दिवस
Neeraj Agarwal
समझ
समझ
Shyam Sundar Subramanian
प्यार इस कदर है तुमसे बतायें कैसें।
प्यार इस कदर है तुमसे बतायें कैसें।
Yogendra Chaturwedi
अब इस मुकाम पर आकर
अब इस मुकाम पर आकर
shabina. Naaz
"आंखरी ख़त"
Lohit Tamta
पाप का भागी
पाप का भागी
Dr. Pradeep Kumar Sharma
ओढ़े जुबां झूठे लफ्जों की।
ओढ़े जुबां झूठे लफ्जों की।
Rj Anand Prajapati
हिन्दी दोहा बिषय- न्याय
हिन्दी दोहा बिषय- न्याय
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
हुस्न और खूबसूरती से भरे हुए बाजार मिलेंगे
हुस्न और खूबसूरती से भरे हुए बाजार मिलेंगे
शेखर सिंह
लक्ष्य एक होता है,
लक्ष्य एक होता है,
नेताम आर सी
अध्यापक दिवस
अध्यापक दिवस
SATPAL CHAUHAN
विद्यार्थी को तनाव थका देता है पढ़ाई नही थकाती
विद्यार्थी को तनाव थका देता है पढ़ाई नही थकाती
पूर्वार्थ
"एको देवः केशवो वा शिवो वा एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा ।
Mukul Koushik
नव-निवेदन
नव-निवेदन
Jeewan Singh 'जीवनसवारो'
हम केतबो ठुमकि -ठुमकि नाचि लिय
हम केतबो ठुमकि -ठुमकि नाचि लिय
DrLakshman Jha Parimal
किस कदर है व्याकुल
किस कदर है व्याकुल
सुशील मिश्रा ' क्षितिज राज '
"तेरी खामोशियाँ"
Dr. Kishan tandon kranti
3282.*पूर्णिका*
3282.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
इसी से सद्आत्मिक -आनंदमय आकर्ष हूँ
इसी से सद्आत्मिक -आनंदमय आकर्ष हूँ
Pt. Brajesh Kumar Nayak
जिंदगी की राह आसान नहीं थी....
जिंदगी की राह आसान नहीं थी....
Ashish shukla
"जाने कितना कुछ सहा, यूं ही नहीं निखरा था मैं।
*Author प्रणय प्रभात*
किसका चौकीदार?
किसका चौकीदार?
Shekhar Chandra Mitra
अभी गहन है रात.......
अभी गहन है रात.......
Parvat Singh Rajput
माईया पधारो घर द्वारे
माईया पधारो घर द्वारे
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
शेर बेशक़ सुना रही हूँ मैं
शेर बेशक़ सुना रही हूँ मैं
Shweta Soni
क्या मुकद्दर बनाकर तूने ज़मीं पर उतारा है।
क्या मुकद्दर बनाकर तूने ज़मीं पर उतारा है।
Phool gufran
ये जनाब नफरतों के शहर में,
ये जनाब नफरतों के शहर में,
ओनिका सेतिया 'अनु '
दिन भर जाने कहाँ वो जाता
दिन भर जाने कहाँ वो जाता
डॉ.सीमा अग्रवाल
*सभी ने सत्य यह माना, सभी को एक दिन जाना ((हिंदी गजल/ गीतिका
*सभी ने सत्य यह माना, सभी को एक दिन जाना ((हिंदी गजल/ गीतिका
Ravi Prakash
Loading...