छोड़कर मैं आज तेरी गलियों को आगे बढ़ा
छोड़कर मैं आज तेरी गलियों को आगे बढ़ा
तुम में मुझमें कुछ नहीं था तुमने ऐसा क्यों कहा
छोड़कर मैं आज तेरी गलियों से आगे बढ़ा
उसकी आंखों में चमक थी चेहरा भी महताब था
वो हसीं कोई ग़ज़ल थी नाम उसका ख़्वाब था
ख़्वाब उसका जो भी था उस ख़्वाब में मैं था नहीं
खुरदुरी बंजर ज़मीं मैं पैर उसके मखमली
मखमली पैरों तले जीना नहीं मेरी अदा
छोड़कर मैं आज तेरी गलियों को आगे बढ़ा
तुम में मुझमें कुछ नहीं था तुमने ऐसा क्यों कहा
साथ अपना छूटने की वज़ह तो बस ये रही
वो मेरी ख़ामोश नज़रे पढ़ नहीं पाई कभी
ज़ख्म दिल के सारे अब नासूर ही तो बन गए
ज़िंदगी बासी पूरानी गम मगर हर दिन नए
इश्क़ में हमको बिला कांटो का गुल भी है चुभा
छोड़कर मैं आज तेरी गलियों को आगे बढ़ा
तुम में मुझमें कुछ नहीं था तुमने ऐसा क्यों कहा
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’