चोर
एक व्यक्ति से मैंने पूछा, तुम क्या करते हो ?
किस तरह अपना गुजारा चलाते हो ?
उसने कहा मैं चोरी करता हूं ,
मैंने पूछा तुम क्या चुराते हो ?
उसने कहा , मैं लोगों का भरोसा चुराता हूँ ,
मैंने पूछा , तुम भरोसा कैसे चुराते हो ?
मैं मीठा बोलकर , उनके प्रति सद्भावना का
नाटक करता हूं ,
फिर उन्हें अपने शब्दजाल में फंसा ,
अपना बनाता हूं ,
उनकी दुखती रगों पर हाथ रख ,
करुणा प्रकट करता हूं ,
उनमें अपने प्रति सद्भावना एवं सहकार की
भावना उत्प्रेरित करता हूं ,
उनमें बेबसी और बेचारगी का
भाव उत्पन्न करता हूं ,
उनमें , उनके अपनों के प्रति द्वेष एवं
नकारात्मकता का भाव जगाता हूं ,
उन्हें भुलावे में रख , उनसे
झूठे वादे करता हूं ,
उन्हें माया के सपनों में लिप्त कर ,
व्यसन की कठपुतली बनाता हूं ,
सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य बनाकर
उन्हें दिग्भ्रमित करता हूं ,
यथार्थ के धरातल से परे उन्हें कल्पना लोक में विचरण करने के लिए बाध्य करता हूं ,
स्वयं को उनका हितचिंतक मानने की सोच ,
उनके मन में जागृत करता हूं ,
जब वे मेरे भ्रम जाल में फस जाते हैं ,
तो उनका स्वार्थपरक दोहन करता हूं ,
मेरा स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर ,
उन्हें उनके हाल पर छोड़कर चला जाता हूं ।