चोर हूँ मैं…
नहीं बदलना चाहता
अर्थ, तुम्हारे शब्दो के,
ना ही शब्द तुम्हारे।
मैं आज भी वहीं हूँ
जो कल तक था।
हूँ चुराना चाहता सदा से ही
तेरे माथे की शिकन
वह हड़बड़ाहट, जिसके कारण
घुमाते रहते हमेशा कलम को
अपनी अंगुलियों में।
वो शर्म जिसके कारण
बोल ना पाते, बात मन की
वो संकोच जिसके कारण
बैठे रहते तुम सिमटकर
दिल के अंधेरे में …..
और भी वह सबकुछ
जिसके कारण
मासूमिसत तेरी, दूर हैं तुझसे।
यदि हैं यह सब चोरी
तुम्हारी नजरो में
तो करुगा पसन्द कहलवाना
स्वयं को चोर ही।
कारण इसका……… कुछ खास नहीं,
क्योंकि नहीं चाहता कभी भी मैं
चुराना पसन्द तुम्हारी
तुम्हारी अभिव्यक्ति, विचार तुम्हारे
जो तुम्हारे निजी हैं,
जिसपर अधिकार है,
सिर्फ तुम्हारा……. सिर्फ तुम्हारा।