चाह
चाह है
आज कुछ लिखूँ तुम पर
पर क्या
कविता ,छन्द या दोहा
कविता से भी सरस तुम
मुक्तक से स्वच्छन्द तुम
चाह है कुछ लिखूँ
तुम मेरे प्रिय हो
मुझे बडे अजीज हो
लेकिन
महाकाव्य या खण्डकाव्य
लिखूँ मन ने चाह
अभी तो तुमने
दी दस्तक
मेरी जिन्दगी में
बाकी है
तुमको बरतना
जुटा रही हूँ मैं
काव्य साम्रगी
कुछ नजदीकिया
तुम्हारे साथ पूरी
अभी कुछ है बाकी
खण्ड खण्ड जोड
तुम्हारे जीवन का
लिखूँ मैं खण्डकाव्य
तुम भी हो अनावृत
सबकुछ है साफ साफ
रहस्य की परतें खोल
ना करना अब तुम
आँख मिचौली
क्योंकि मैं तुमको
अब समझने लगी हूँ
पढने लगी हूँ
बीते दिन की करतूत
फिर ना दोहरा देना
जैसा कहूँ
मेरा कहना मान लेना
क्योंकि अब तुम
मेरे पन्नों में हो
मेरी लेखनी में
जैसे सूरज उदित
होता वैसे आना
तुम्हारा होता
फिर विलुप्त हो जाते
अगले आगमन तक
कितना कष्टदायी है
आना जाना तुम्हारा
फिर कैसे हो पूरा
मेरा यह खण्डकाव्य
शुक्रिया तुम्हे
मेरे खण्डकाव्य का
विषय हो तुम
दूर सफर है
मन चंचल ना करना
हाथ मेरा जो थामा
सदा सदा सदा
डॉ मधु त्रिवेदी