घोषणा, युद्ध की (महाभारत)
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रास रचानेवाला कान्हा क्यों हो गया कठोर |
चुरा सका ना कौरव का चित्त कान्हा सा चितचोर|
मुरली से कर देनेवाला विश्व को पूर्ण विभोर|
पंचजन्य क्यों फूँक- फूँक कर किया युद्ध का घोष|
पशु-पक्षी भी जो धुन सुन हो जाते थे कहो मलंग|
वह धुन रोक नहीं क्यों पाया? कान्हा,कहिये जंग|
या विचार विद्रोही हो गये कंस का लख करतूत |
अमानवीय कुकृ्त्य ने मन में भरा विभेद बहुत !
क्यों विकल्पों से इतर युद्ध ही निर्णय-कृष्ण बना?
क्यों नहीं कह कल्याण लोक का युद्ध पर भारी तना?
क्यों बना मुकुट सर्वोच्च,कुरु–कुल का कुलघाती बना|
भीष्म सा ज्ञानी विकट के सामने अपघाती क्यों बना?
क्या युधिष्ठिर था;या दुर्योधन,कृष्ण या धृतराष्ट्र था?
कौन रण का था प्रणेता? व्यक्ति या कि राष्ट्र था?
हो गया घोषित समर,विद्जनों का निर्णय अजब|
क्या अहंकारों का यह टकराव था, रण का सबब?
युगपुरुष था सोचता इस युद्ध का औचित्य क्या?
युद्ध का जनक,युद्ध का आवर्तन क्यों नित्य हुआ|
हुआ युद्ध यदि,होगा युग का और पुनः परिवर्तन|
पुनः युद्ध होगा,युद्ध का बस पुनः पुनःआवर्तन |
दो जाति,विचार दो भिन्न लोग |
वे रह न सकेंगे साथ शोक |
धन धान्य ही साध्य बनेगा फिर|
कोई सार न सत्व बचेगा फिर|
सृष्टि का अर्थ, अनर्थ होगा|
सब ऋचा पूर्णतः व्यर्थ होगा|
जब सृष्टि रचा जाने को था |
तब लक्ष्य सत्य पाने का था|
नर, नरता को रक्षण देंगे |
तय था, नहीं ऐसा रण देंगे|
हरि जो चाहें, तो दें रोक इसे |
पर क्यों नहीं सकते सोख इसे|
विध्वंस करें, निर्माण करें|
निर्माण करें फिर ध्वंस करें|
सृष्टि कुंठित न हो जाये |
यह भू–लुंठित ना हो जाये|
कुछ हो अप्राप्य,कुछ प्राप्य तथा|
कुछ हो समक्ष,कुछ तथा कथा|
शायद हरि ने ऐसा सोचा हो|
जो तय है उसको होने दो|
सृष्टि का पूर्ण हो अर्थ और|
चलता रहे,रुक ना जाये सौर |
विष्णु का कर्तव्य शायद, थे रहे ऐसे निभा|
काल उस में,स्यात् हो यह कृष्ण की उपयोगिता|
अहंकार सिरमौर बनेगा जब युग में,
गिरा करेगा विश्व युद्ध की ज्वाला में|
विक्षिप्त,बिमार, विस्फोटक मन बन ‘पिता’
प्रलय लायेगा सुंदर शाला में|
सभ्यता जभी विकसित होकर उनन्त शिखर
और चरम प्राप्ति को आती है|
क्या यही हश्र होता रहता?
यह पुनः धुल-धूसरित ही हो जाती है?
मृत्यु-जीवन, आगा-पीछा, पीछा-आगा|
उन्नति–अवनति का चक्र उठाए रहा सदा |
तत्व है वह कौन सा जो युद्ध को प्रेरित करे ?
तर्क या वह कौन सा जो युद्ध में प्रेषित करे ?
इर्ष्या ही क्या युद्ध नहीं या लिप्सा,लालच,दंभ ?
अहं,अनादर अन्यथा सर्वोच्चता का दंश।
सब पाने की लालसा जो अदम्य है हो जाता|
मानवीय सब सत्ता,पत्ता तथा तिरोहित हो जाता|
हत्या,हिंसा और विनाश का आत्मसुख तो नहीं आक्रमण!
‘युद्ध क्षत्रियोचित कर्म’ की विद्या,युद्ध कार्य का है क्या मंथन?
युद्धाकांक्षा इन्हीं मनोभावों में रहकर रहा उलझकर|
कर न सका निर्माण,स्थापित नये स्मृति कोई गुणकर|
युद्ध घोषित हो गया, दो पक्ष तत्पर हो गये|
व्यूह रचना, मन्त्रणा में वीर सारे खो गये |
रण क्षेत्र व्यूह से रचा गया |
कुरुक्षेत्र व्यूह से रचा गया|
योद्धा रणवेष में रचे गये|
नव अस्त्र–शस्त्र कई रचे गये|
नभ-भेदी भीषण नाद उठा |
संहार ही ज्यों साक्षात् उठा|
औचित्य युद्ध की कहे कौन?
युग से मानवता खड़ी मौन|
विरचित होते कुछ शब्द नहीं|
जो अहम् नहीं अपशब्द नहीं|
होता धरती पर युद्ध नहीं|
होता जो कोई क्रुद्ध नहीं|
प्रेरणा हर युद्ध की होता रहा है छुद्र पर,कितना विशाल !
युद्ध इस की प्रेरणा है कौन?कृष्णा,कृष्ण या कि महाकाल ?
सम्पदा,ऐश्वर्य,धरती,नार का सौन्दर्य या आत्माभिमान?
मानवीय मुल्यों की या स्थापना,अधिकार या उद्भ्रांत-ज्ञान?
सृष्टि,स्रष्टा,विष्णु,ब्रह्मा,शिव,शक्ति को या प्रताड़ना?
न्याय की स्थापना,अन्याय का प्रतिकार या बस ‘चाहना’|
एक आत्म सुख?आत्म रति?आत्मवाद? या आत्मवध?
युद्ध क्या उद्योग या व्यापार या फिर सृष्टि का प्रारब्ध?
प्रेरणा इस युद्ध की है व्यक्तिगत एक नारी का अपमान?
नर के अति मिथ्या गौरव,एक नर के नरत्व का अभिमान?
यह यहीं फैला नहीं है इस असत् तथ्य से और दूर|
सामाजिक मन के संरचना के रचना तक एवम् प्रचुर|
वैयक्तिक विवेक में अहम् शब्द तक चला गया|
कामना युद्ध की और सभी कुछ जला गया|
दो मानसिकता, धारणा दो, कामना दो, प्रण अलग|
दो सैन्य आकर डट गये चिन्तन लिये मन में अलग|
देखकर दो पक्ष उद्धत, पार्थ पर, विचलित हुआ|
ध्वंस की उस कल्पना से मान्य नर चिंतित हुआ|
कर पार्थ, कृष्ण को सम्बोधित|
बोला-“हरि है क्या यही उचित?
किस हेतु युद्ध मैं करूँ? कहें |
अपनों का वध इस कर से करें?
ये भीष्म, द्रोण, गुरु कृपाचार्य |
ये तात, भ्रात,जन,स्वजन हे आर्य|
इनका वध? छिः छिः हे आचार्य|
क्या इनका वध नहीं घृणित कार्य?
श्रध्दा जिनमें जो पूज्य रहे|
यह युद्ध नहीं कुछ और कहें|”
अति विकल बोलकर पार्थ हुआ|
धनु-वाण, अस्त्र सब त्याग दिया|
विहँसे मन में भगवान कृष्ण|
अर्जुन बोला फिर, “सुनें कृष्ण!
ऐश्वर्य और सुख चाह नहीं|
कुलनाशी का कोई राह नहीं|
प्रेरित न करें मुझे हेतु युद्ध|
है पुण्य नहीं यह पाप शुद्ध|
मानवता हम पर थूकेगी|
सन्तान न अपनी चूकेगी|
आकर ये हम कहाँ खड़े हुए?
हम पर ही आ क्यों युद्ध पड़े?
युद्धास्त्र ज्ञान का अर्थ यही |
जानता तों लेता कभी नहीं|
मानव से अच्छे हैं पत्थर|
वध हेतु नहीं रहते तत्पर|
जड़ से जीवन था रचा गया|
जब रण जीवन को पचा गया|
विधि ने विधान को बदल दिया|
मन रच जीवन को सबल किया|
कि जीवन में विश्वास बढ़े|
अस्तित्व में आस्था का वास बढ़े|
सृष्टि विनाश से बच जाये|
अस्तित्व है सच यह सच पाए|
मन को चिन्तन की शक्ति मिला|
बुद्धि,विवेक और युक्ति मिला|
संग्राम मात्र ही क्या उपाय?
अस्तित्व हेतु,कुछ कहें हाय!
धन,धान्य सभी,ऐश्वर्य सभी|
युग से है भुक्त,कुछ अभी नहीं|
वे ही भोगें क्या तथ्य विशिष्ट?
रण होगा तो होगा भोग भी नष्ट|
जब भोग ही होगा नष्ट प्रभु!
मानवता को क्यों कष्ट प्रभु?
सौन्दर्य जलेगा धू-धू कर|
मानवता अपनी चू-चू कर|
दारिद्रय में जीवन हर्ज है क्या?
नर होकर,नर-वध तर्ज है क्या?
कौरव जो होवें भ्रष्ट,पतित|
हम ज्ञानी हो, हो जाँय कुपित|
कुछ उचित नहीं लगता प्रभु यह|
बस अनुचित ही लगता प्रभु यह|”
मन में भीषण अवसाद उठा|
तन में कम्पन का नाद उठा|
ज्यों निचुड़ गया हो सभी रक्त|
हुआ पार्थ स्याह एवम् अशक्त|
कैसी बिडम्बना? प्रभु की यह कर रहे युद्ध को उत्प्रेरित|
बस क्षणों पूर्व हाँ यही कृष्ण कर रहे कर्ण को अनुत्साहित|
बस प्रकृति का यह प्रारब्ध, क्या और कहेंगे इसे सुधिजन|
जब प्रभु ही हों किंकर्तव्यविमूढ़,तों क्या पायें कर और कृष्ण|
अति सहज रहे भगवान कृष्ण,
किंचित मन में कोई भेद न था|
निश्चिन्त रहे मन ही मन वे कि
शंकित था पार्थ पर, रोध न था|
“हे पार्थ”,— कृष्ण बोले ऐसे |
असमय चिंतन मत कर ऐसे|
कुछ नहीं, नपुंसकता केवल |
हो रहा तुम्हारा मन दुर्बल|
यह वृथा मोह मती भ्रमित हुआ|
कायरों की तरह आचरित हुआ|
सुन पार्थ,सत्य एक पूर्ण सत्य|
यह पूर्ण ज्ञान यह पूर्ण तथ्य|
है अजर,अमर,अवध्य,अनन्त|
आत्मा को जानते साधू,संत|
तू मार न सकता है उसको|
तू जार न सकता है उसको|
वह जन्मा है फिर जन्मेगा|
कुछ काल में चोला बदलेगा|
शाश्वत है नष्ट नहीं होगा|
हो स्थिर सभी स्पष्ट होगा|
तू क्षात्र धर्म का कर पालन|
बढ़ रण का कर तू परिचालन|
भौतिक स्वरूप यदि छीन भी जाय|
स्वर्गिक सुख,स्वर्ग का भोग भाग्य|
यदि विजय हुआ तो महासाम्राज्य |
इसलिए न रण यह कभी त्याज्य|”
‘अब कर्मयोग की बात सुनो|
कर मन स्थिर और इसे गुणो|
आसक्ति और परिणाम छोड़|
कर कर्म, वृथा सब मोह छोड़|
हो मोहयुक्त रण त्याग दिए|
समझो मुक्ति से भाग गये|
इस कर्मयोग का कुछ साधन|
भव बाधा करता पूर्ण हरण|
इस हेतु पार्थ रण त्याग नहीं|
इस तरह मोक्ष से भाग नहीं|”
पर पृथा पुत्र कह उठा तुरत|
“क्या सत् है बोलें और असत्?
क्या युद्ध ये महा संहार नहीं?
जो कर दे राख अंगार नहीं?”
“सुन पार्थ,नियति का लेख अलग|
कहता हूँ सुनो हो करके सजग|”
“पर, मैं शंकित हूँ, हे वासुदेव|
इस युद्ध का कोई क्या विवेक?
सुन क्यों नहीं पाते हैं क्रन्दन|
दिल दे दहला ऐसा आह! रुदन|
ताड़ना है दु:ख, पीड़ा और व्यथा|
यातना के सिवा यह युद्ध है क्या?
युद्ध करना राज्य या साम्राज्य हेतु|
युद्ध करना अहम् की संतुष्टि हेतु|
युद्ध क्यों अनिवार्य अति मेरे लिए?
कौन सा संदेश या आशय है मेरे लिये?
हे सखा,प्रेरित न मुझको युद्ध हेतु कीजिये|
सभ्यता विकसित हो कोई कर्म वैसा कीजिये|”
“सुनो अर्जुन,युद्ध तो है आज की अनिवार्यता|
जिस तरह है विष्णु के अवतार की अनिवार्यता|
जब-जब हुआ है धर्म से विचलित मनुज|
संकटों से सभ्यता की रश्मि जाती जब बुझ|
क्षीर-सागर विष्णु तब हैं त्यागते|
इस धरा को तीन डग से नापते|
आज मैं हूँ कृष्ण का ले रूप तेरे सामने|
देख मुझमें ब्रह्म,मत डर,लगो या कांपने|
और जब कृष्ण ने विस्तृत किया मुख|
था वहाँ ब्रह्मांड के विस्तार का रुख|”
और अब अर्जुन का संशय था तिरोहित|
धर्म की स्थापना हित रण को मोहित|
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