घाव
उघङ जाते हैं कुछ घाव मरहम लगाने के फेर में
धीरे से किसी कोने से रिस जाया करते हैं
छोड़ जाते हैं फीकी सी हँसी होठों पर
अश्क आखों में भर जाया करते हैं
छीलकर निर्मम हाथों से गालों को
फिर आँचल में सिमट जाया करते हैं
पूछे गर कोई वजह बहने की
तो अश्क भी मुस्कुराया करते हैं
रचकर इक नयी कहानी
घाव खुद से ही छिपाया करते हैं
छिपा कर खुद ही बदसूरती अपनी
आइने से खुद ही शरमाया करते हैं
जानते हैं भ्रम में जी रहे हैं
पर हकीकत से मुंह छिपाया करते हैं
हाँ कुछ घाव भी मुस्कुराया करते हैं खिलखिलाया करते हैं
नूतन