घरौंदा
हमें क्या मालूम
कि दरख्तों में पत्तियाँ
दम साधे बैठी है,
कोई आवारा बादल भी
बिल्कुल रूठी है।
भोर होने पर देखा
कुछ न था शेष
न ख्वाब, न सपना
न ही घरौंदा अपना।
तब हमने जाना
सब कुछ खोकर भी
कैसे जीये जाते हैं,
रेत के घरौंदे तो
सिर्फ बच्चों के खेल में ही
बनाए जाते हैं।
प्रकाशित काव्य-कृति : ‘पनघट’ से
चन्द पंक्तियाँ।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
बेस्ट पोएट ऑफ दि ईयर