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11 Dec 2016 · 1 min read

घटायें गर करके हिसाब चली जाती

घटायें गर करके हिसाब चली जाती
खिज़ाएं होके परेशान चली जाती

दीद गर हो जाती उस नूर-ए-नज़र की
इन बुझी आँखों की थकान चली जाती

साज़ बिठाकर गुनगुनाकर कही होती
दिल की गलियों में आवाज़ चली जाती

आ जाती गर वक़्त पे बहार-ए-ख़्वाब
में लेकर महकता गुलाब चली जाती

भूले से ही सही आई तो है मोहब्बत
वरना वो मुझसे अंजान चली जाती

रौनक है दो जहाँ की तुम से ही दिल में
ज़िंदगी बेसबब और बेजान चली जाती

काश के खोले होते पंख ख्वाबों ने
उनको ‘सरु’ देकर परवाज़ चली जाती

1 Comment · 257 Views
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