गज़ल
वतन में छाया हुआ है अज़ार का मौसम
न जाने आए गा कब फिर से प्यार का मौसम
ये कैसा खौफ़ है गुलशन में छा गया यारों
ये किसने लूट लिया है बहार का मौसम
दिलों में पहले जो उल्फ़त का दरिया बहता था
ये कौन लाया है इसमें उतार का मौसम
अना को बेच दिया शान रख दिया गिरवीं
रहेगा देश में कब तक उधार का मौसम
मिटा दो जड़ से उन्हें जो लड़ाते हों हमको
न आने देना कभी भी ये हार का मौसम
तड़पना छूटेगा इक रोज़ इस अँधेरे से
उजाला लाएगा इक दिन क़रार का मौसम
फँसा हुआ है सियासत के फन्दे में इंसां
सभी को चुभता है प्रीतम ये खार का मौसम
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती(उ०प्र०)