“गोहार: आखिरी उम्मीद की”
अड़ोसी-पड़ोसी, रिश्तेदार
और कुछ अनजाने भी,
रहन-सहन, पहनावे पे,
देते सलाह और ताने भी।
बिना पगार लिए लोग
अपनी ये नौकरी ख़ूब बजाते हैं।
मजबूत के पीछे चुगली करते,
कमज़ोर पाकर सुनाते है।
इन नौकरों की नौकरी
उस वक्त भाड़ में चली जाती हैं;
जब आख़िरी उम्मीद लिए
वो नज़रे गोहार लगाती हैं।।
गलियों में खिलखिलाहट उसकी
ये लोग नहीं सह पाते हैं।
सही वक्त पे गलत को गलत
ये लोग नहीं कह पाते हैं।
रात की चीखों से बेखबर,
दिन के फुसफुसाहट की ख़बर रखते हैं।
ये ठंडे लहू वाले लोग
ऊपर से बहुत ही सबर रखते हैं।
“घर की इज्ज़त” कहने वालों की
तब इज्ज़त मर जाती हैं,
जब आख़िरी उम्मीद लिए
वो नज़रे गोहार लगाती है।
जो अपनी हर एक कदम
लोगो के नज़रिए से चलती है।
हर वक्त लोगो के पैमाने पे
मोम की तरह जो ढलती है ।
लोगो के चलते हर बार
जो अपनी राह बदलती हैं।
सुन लोगो की, मार अपनी ईच्छा;
लोगों का कहा जो करती है।
देख हकीकत उस वक्त लोगो को
अपनी नज़रों से गिराती हैं;
जब आख़िरी उम्मीद लिए
वो नज़रे गोहार लगाती हैं।।
ओसमणी साहू ‘ओश’ (छ. ग.)