गोंडवाना गोटूल
गोटुल एक व्यवस्था है जिसमे अविवाहित लड़के लड़कियों और बच्चो को नैतिक शिक्षा और व्यवहारिक ज्ञान दी जाती है । गोटुल को गुरुकुल की उपमा देना अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि इनमें कई छोटे बड़े कुटीर बने होते है । वेरियर एल्विन ने सन 1947 में प्रकाशित पुस्तक मुरिया एंड देयर गोटुल्स में बस्तर और उसके आस पास के गांवों में रहकर गोटुल और गोंड आदिवासियों के विषय में गहराई से अध्ययन कर इस पुस्तक की रचना की ।
गोटुल व्यवस्था अधिकतर गोंड जनजाति की उपजाति माड़िया लोगो के ग्रामों में मिलती है । ये अधिकतर मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में मिलती है । कई कई जगह अभी भी गोटूल से संबंधित कुछ चीजे याने कुटियाये, झोपड़ियां, ढोलक इत्यादि देखने को मिल जाती है ।
यह व्यवस्था गोंड जाति के देवता पारी कुपार लिंगो ने किशोरों को सर्वांगीण शिक्षा देने के उद्देश्य से शुरू किया गया था जो एक अनूठा अभियान था। इसमें दिन में बच्चे शिक्षा से लेकर घर–गृहस्थी तक के पाठ पढ़ते हैं तो शाम के समय मनोरंजन और रात के समय आनन्द लिया जाता है। मुरिया बच्चे जैसे ही 10 साल के होते है गोटूल के सदस्य बन जाते हैं। गोटुल में शामिल लड़कियों को ‘मोटीयारी’ और लड़कों को ‘चेलिक’ कहते हैं। गोटूल में व्यस्कों (सीनियर) की भूमिका केवल सलाहकार की होती है, जो बच्चों को सफाई, अनुशासन व सामुदायिक सेवा के महत्व से परिचित करवाते हैं।
कही न कही गोटूल व्यवस्था से प्रेरित होकर वर्तमान में हॉस्टल व्यवस्था बनाई गई होगी क्योंकि इन दोनो व्यवस्थाओ में बहुत कुछ समानताएं देखने को मिलती है जैसे गोटूल में नियम होते है की रोज शाम प्रत्येक मोटीयारी और चेलिक को एक एक लकड़ी लेकर एक जगह इकट्ठा करना होता था यदि कोई लकड़ी लाना भूल जाता है तो उसे अगले दिन दो लकड़ियां लाना पड़ता था जैसे सामान्य नियम है । इन लकड़ियों को जलाकर उसके इर्द गिर्द सभी लोग नृत्य करते है । जो आज स्काउट गाइड कैंप या अन्य एडवेंचर शिविरो में कैंप फायर के नाम से जाना जाता है । लडको के प्रमुख याने कैप्टन को सिलेदार नाम दिया जाता है तथा लड़कियों के कैप्टन को बेलोसा कहा जाता है ।
वर्तमान में गोटूल व्यवस्था बस्तर के आंतरिक क्षेत्रों में आज भी अपने बदले हुए रूप में देखा जा सकता है। किन्तु बस्तर में बाहरी दुनिया के कदम पड़ने से गोटुल का असली चेहरा बिगड़ा है। बाहरी लोगों के यहां आने और फोटो खींचने, वीडियो फिल्म बनाने के कारण ही यह परम्परा बन्द होने की कगार पर है। यह परम्परा माओवादियों को भी पसन्द नहीं है । इसके लिए उन्होंने बकायदा कई जगह शाही फरमान जारी कर इस पर प्रतिबन्ध लगाने की कोशिश की है। उनकी नजर में यह एक तरह का स्वयंवर है और जवान लड़के-लड़कियों को इतनी आजादी देना ठीक नहीं है। उनका यह भी मानना है कि कई जगह पर इस परम्परा और व्यवस्था का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है और लड़कियों का शारीरिक शोषण भी किया जा रहा है। लेकिन वास्तव में ऐसा बिलकुल नहीं है । बस्तर के नारायणपुर गांव के सामाजिक कार्यकर्ता श्री प्रमोद पोटाई जी जो स्वयं गोटूल से शिक्षा दीक्षा ले चुके है उनका कहना है की गोटूल में नियम बहुत कड़े भी होते है और लचीले भी अगर किसी चैलिक या मोटीयारी द्वारा ऐसा कोई कार्य किया जाता है जो अक्षम्य हो तो उसके लिए जो वहां पर शिक्षक या गुरु होते है वे उनके माता पिता को शिकायत करते है या दंड भी देते है । और वैसे भी वहां अधिकांश एक ही गोत्र के मोटीयारी और चेलिक रहते है जो एक दूसरे में भाई बहन लगते है । अगर किसी अन्य गांव से अन्य गोत्र वाली मोटीयारी या चेलिक आते है तो जरूर उन्हें एक दूसरे में प्रति आकर्षण हो जाता होगा लेकिन इसके लिए भी दोनो के माता पिता से पूछकर उनकी उपस्थिति में विवाह संपन्न किया जाता है और उन्हें दांपत्य जीवन जुड़ी आवश्यक शिक्षा और बड़े बूढ़े लोगों को सम्मान देना इत्यादि शिक्षा भी दी जाती है । कई इलाकों में यह परम्परा पूरी तरह बंद तो नहीं हुई है, लेकिन कम जरूर हो रही है ।
छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और अन्य गोंड बाहुल्य क्षेत्रों में सामाजिक लोगो ने सरकार को प्रस्ताव भेजकर गोटूल व्यवस्था को पुनः आरंभ करने हेतु प्रयासरत है । क्योंकि आज की नई पीढ़ी अपनी बहुमूल्य विरासत को और रीति रिवाज को आधुनिकता के चलते भूलती जा रही है ।
गोविन्द उईके
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