गुल और भौरे
गुल और भौरे
कलियाँ खिला करती थीं
कभी भौरों के लिए !
अब ये गुल खिलने लगे
यहाँ औरों के लिए ?
रफ्ता-रफ्ता वक्त बदला
बदल गया चाल-चलन ।
मन के अब भाव बदले
बदल गया मेल-मिलन ।।
क्यूँ सूरज निकला सुबह
हम सबों के लिए ?
क्यूँ चाँद छिपा रात में
इन जुगनुओं के लिए ??
क्यूँ गुल खिला है नया
तितलियों के लिए ?
कभी यही खिलता था
मातृभूमियों के लिए !!!
इन गुलों की इच्छा नहीं
जान दें भौरों के लिए !!
ये गुल तो न्योछावर हैं
आज भी वीरों के लिए !!!
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दिनेश एल० “जैहिंद”
18. 03. 2017