“गुरु”
लघु का विलोम
कभी नहीं रहा गुरु,
लघु के सापेक्ष
व्यापक औ’ अनन्त
असीम भी है गुरु,
जहाँ से होता
जीवन में संस्कार शुरू।
मगर अब तो
गुरु नाम की संस्था भी
आ चुकी सन्देह के घेरे में,
आकाश छूती व्यापकता को
त्यागकर सिमट रही
नित-निरन्तर संकुचित दायरे में।
आज के दौर में देखो
गुरुओं का कितना
अजीबोगरीब हाल है,
गुरु तो कम हो रहे
मगर बढ़ रहे गुरुघण्टाल है।
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
अमेरिकन एक्सीलेंट अवार्ड प्राप्त-2023