गुनगुनी धूप
छितराई शबनम
छिपा लेती है,
दिवाकर मरीचि,
और
महरूम रखती है
गुनगुनी धूप से
हर जन को।
कंपकंपाती काया,
शिथिल अंबक
एकटक
निहारते हैं
खुले द्यौ को
आशान्वित होकर।
यकीनन
कमी सदा खलती है
हर एक उपादान की,
गुनगुनी धूप भी
उसी कमी का
एक अंश मात्र है
शीतकाल का।