ग़ज़ल
ग़ज़ल
बीहड़ कटीली राह में तुम ढूँढ़ते हो क्या,
पत्थर दिलों-से कभी पसीजते हैं क्या !
लाख करो कोशिश सिर मारने की तुम,
बेईमान कानों में भी जूँ रेंगती है क्या!!
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह बाँट रहे अंधे,
फैलाने दुनिया में उद्योग और धंधे,
जमीं का अपनी सौदा होने न देना तुम
देकर दुःख अपने सुखी रहते हैं क्या!!
दिन-रात मोम से तुम जलते रहो मगर,
पहाड़ खोदकर है निकलती नई डगर!
पक्की डगर तुम्हारी सच्चे हो वीर तुम,
डटे रहो तुम देश-भक्त सोचते हो क्या!!
मज़हबी झगड़े हैं मज़लूम परेशान,
अन्नदाता त्राहि-त्राहि करे हिन्दुस्तान!
बाँटो न नोंच-नोंच खाओ ना तुम,
माँ को परेशान ‘मयंक’ करते हो क्या !!
✍के.आर.परमाल “मयंक”