ग़ज़ल – रहते हो
अरमानों में आग लगाते रहते हो
क्यों ऐसे तुम मुझे जलाते रहते हो
मजा सजा है साबित करते रहते हो
हॅंसा हँसा कर मुझे रुलाते रहते हो
चोट बात की ऐसी लगती है तेरी
जख्मी कर मरहम को लगाते रहते हो
ख़्वाब दिखाने की ख़ातिर अक्सर यूँ ही
जगा जगा कर मुझे सुलाते रहते हो
महज़ शिकायत है इतनी तुमसे मेरी
अपना कहकर ग़ैर बनाते रहते हो