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18 Feb 2024 · 2 min read

ऐ भाई - दीपक नीलपदम्

ऐ भाई ! जरा देख कर चलो

जरा संभल कर चलो

पर उससे पहले जाग जाओ |

कब तक आँखें बंद कर

काटते रहोगे वही पेड़

जिस पर बैठे हो तुम,

ऐसा तो नहीं कि

आरी चलने की आवाज

तुम्हें सुनाई नहीं देती, या

तुम्हारी डाल के दरकने

और धीमे-धीमे नीचे सरकने

की आहट भी नहीं होती |

ये घायल शाख अभी भी जीवित हैं

और पाल रहीं हैं तुम और हम जैसे

नाशुकरों को क्योंकि

उन्हें अभी भी उम्मीद है तुमसे

कि एक न एक दिन तुम्हें अक्ल आएगी

तुम जरूर जागोगे

और उस शाख को

बचाने के लिए

जरूर भागोगे |

उस शाख को तुमसे- हमसे

उम्मीद है

क्योंकि ओढ़ रखा है एक

भारी-भरकम शब्द तुमने

अपने लिए,

मानव और मानवता

हा ! प्रकृति को पता है कि

उसका सबसे बड़ा दुश्मन

कोई और नहीं है,

हे तथाकथित मानव

सिर्फ और सिर्फ तुम हो |

तुम उस शाख को नहीं काट रहे हो

तुम मानवता की साख को काट रहे हो

डुबो रहो हो गर्त में

जहाँ तुमको भी जाना पड़ेगा एक दिन

यदि नहीं सुधरे, नहीं समझे

या यूँ कह लो

कि अपनी मक्कार आँखों को

मूंदे हुए बैठे रहे

तो जाना पड़ेगा

उसी गर्त में एक दिन |

मान लो इस बात को कि

ब्रह्म की सबसे घटिया सृजित कृति हो तुम |

अवश्य पछताता होगा विधाता भी

कि क्यों किया उसने मानव का सृजन |

ईश्वर सौ अपराध माफ़ कर देते हैं,

सुना है कहीं, तुमने भी सुना होगा

अपनी अपनी किताबों में पढ़ा भी होगा,

तो अभी भी अपनी करनी सुधार लो

अपनी धरा को कुछ संवार लो

देखना कैसे आज ही दिख जाएगी

कल की खुशहाल फ़सल |

लेकिन जल्दी करो,

अब देर मत करो |

(c)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम् “

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